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132 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
नीतिशास्त्र की वादात्मक प्रणालियां
सामान्यतः नीतिशास्त्र (साथ ही सभी कला तथा विज्ञानों) के भी अध्ययन की दो प्रणालियाँ हैं
(1) अनपेक्षात्मक और ( 2 ) अपेक्षात्मक
(1) अनपेक्षात्मक प्रणाली में नीति के सिद्धान्त अटल और सनातन माने जाते हैं, देश-काल- मानव आदि किसी भी स्थिति, परिस्थिति से अपरिवर्तनीय होते हैं, उनमें किसी प्रकार का बदलाव नहीं होता ।
अंग्रेजी में इसे (Deductive Method) निगमनात्मक प्रणाली कहा जाता है । इस प्रणाली में पहले सिद्धान्त, नियम तथा आदर्श निश्चित कर लिए जाते हैं और बाद में उनका प्रयोग किया जाता है, यानी मानव उनका पालन करते हैं ।
उदाहरणार्थ- 'सत्य बोलना' नीति है । यह त्रिकाल पालनीय है, इसमें किसी भी परिस्थिति में परिवर्तन क्षम्य नहीं है, कोई अपेक्षा की गुंजाइश नहीं है तो यह नीतिशास्त्र की अनपेक्षात्मक प्रणाली है। इसके अनुसार नियम कठोर (Rigid) दृढ़ ओर त्रिकालवर्ती होते हैं ।
जैन दर्शन में इसे उत्सर्ग मार्ग कहा गया है।
( 2 ) अपेक्षात्मक प्रणाली - इस प्रणाली के अनुसार नीति के नियम परिवर्तनशील होते हैं। नैतिक मूल्य पुरुष, प्रकृति परिस्थिति और काल सापेक्ष होते हैं । इस प्रणाली द्वारा विवेचन करते समय सामाजिक रीति-रिवाज, व्यक्तिगत आवेग - संवेग, आदत, देश-काल की परिस्थितियों का भी विचार किया जाता है ।
इसे अंग्रेजी में आगमन प्रणाली (Inductive method) कहा जाता है इस प्रणाली में पहले मानवों की आवश्यकताओं, उनकी परिस्थितियों से सम्बन्धित तथ्यों का संग्रह किया जाता है और फिर उनसे निष्कर्ष निकालकर नियम निर्धारित किये जाते हैं ।
इस प्रणाली को एक अपेक्षा से जैन-दर्शन का कथित अपवाद मार्ग कहा जा सकता है।
लेकिन अपवाद मार्ग और आगमन प्रणाली में एक विशेष अन्तर यह है कि अपवाद मार्ग उत्सर्ग मार्ग ( सामान्य धर्म) को विस्तृत नहीं करता । उसकी दृष्टि तो उत्सर्ग पर ही रहती है, परिस्थितिवश व्यक्ति कुछ काल के लिए