________________
122 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन .
___सामान्य दृष्टिकोण से प्रवृत्ति और निवृत्ति प्रत्यय परस्पर एक-दूसरे के विपरीत मालूम पड़ते हैं, परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए दोनों ही आवश्यक हैं।
एक व्यक्ति चलता ही जाये, कहीं रुके नहीं, विश्राम नहीं ले तो उसकी क्या दशा होगी, मूर्छित होकर बीच में गिर ही पड़ेगा, अपनी मन्जिल तक नहीं पहुंच सकेगा। दूसरा व्यक्ति गमन और विश्राम में उचित समन्वय करता हुआ चलेगा तो सुख से मंजिल पर पहुंच जावेगा।
इसी प्रकार नैतिक जीवन जीने के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति का उचित संयोग आवश्यक है।
नैतिक प्रत्यय के रूप में निवृत्ति है-अनुचित और अनैतिक कार्यों को न करना। कटुशब्द बोलना, व्यर्थ ही किसी को परेशान करना, धन-धान्य आदि का अत्यधिक संग्रह करना आदि सभी अनैतिक कार्य हैं। इनसे समाज में अव्यवस्था फैलती है, असन्तोष भड़कता है और अन्त में व्यक्ति स्वयं भी दुखी होता है। अतः ऐसे कार्यों को न करना ही नीतिशास्त्र के अनुसार निवृत्ति प्रत्यय है। इसे दूसरे शब्दों में निषेधात्मक प्रेरणाएँ भी कह सकते हैं।
प्रवृत्ति प्रत्यय का अभिप्राय है-शुभ में प्रवृत्ति अथवा उन कार्यों को करना जो स्वयं के और समाज के विकास में सहायक हैं। दूसरों की सेवा करना, परस्पर सहयोग, सत्याचरण, प्रामाणिकता आदि नैतिक कार्य हैं, अतः इन कार्यों को करना चाहिए।
भगवान महावीर ने नैतिक जीवन के लिए, प्रवृत्ति और निवृत्ति का रूप स्पष्ट करते हुए सुन्दर प्रेरणा दी है
एक ओर से विरति (निवृत्ति) करनी चाहिए और दूसरी ओर प्रवृत्ति। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए।
नीतिशास्त्र के सन्दर्भ में असंयम से अनैतिकता और संयम से नैतिकता का ग्रहण अपेक्षित है। कर्म का प्रत्यय
भारतीय दर्शनों का कर्म सिद्धान्त नैतिक जीवन के लिए अति आवश्यक है। कर्मसिद्धान्त की स्थिति नीतिशास्त्र के लिए वैसी ही है जैसी विज्ञान के
1. एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पवत्तणं।
असंजमे नियतिं च, संजमे य पवत्तणं ।। -उत्तराध्ययन सूत्र, 31/2