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120 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
धन तथा साधनों का सदुपयोग नैतिक है। दान आदि समाज में अनेक नैतिक कार्य धन से किये जाते हैं । इसीलिए उक्ति है - धनाद् धर्म ।
साथ ही मूल्य नियन्त्रण (price control), झूठे (false) माप-तोल (measurements and weights) को रोकना आदि भी भारतीय नीतिचिन्तक अर्थ पुरुषार्थ के नैतिक प्रत्यय से प्रभावी बनाने की अपेक्षा करते हैं।
काम पुरुषार्थ - काम पुरुषार्थ इच्छाओं के नियंत्रण, असीमित इच्छाओं को सीमा में बांधने की दृष्टि से नैतिक प्रत्यय के रूप में मान्य है, न कि इच्छाओं को खुला छोड़ने के रूप में, क्योंकि अमर्यादित और अनियन्त्रित इच्छाएं तो भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, लूट-मार आदि अनेक अनैतिकताओं को जन्म देती हैं।
मोक्ष पुरुषार्थ - मोक्ष का अभिप्राय धर्मशास्त्रों में सभी प्रकार से मुक्ति, आत्मिक आनन्द की अवस्था माना गया है, जो निराबाध है, शाश्वत है । किन्तु ऐसी अवस्था इस जीवन के बाद आती है, यानी मोक्ष की प्राप्ति इस देह के छूटने के बाद होती है ।
लेकिन नैतिक प्रत्यय के रूप में मोक्ष पुरुषार्थ का यह अभिप्राय संगत नहीं है, क्योंकि नैतिक प्रत्यय इस जीवन से ही सम्बन्धित होते हैं । दूसरी बात यह है कि धर्मशास्त्रीय दृष्टिकोण से मोक्ष एक आदर्श दशा है जबकि नीतिशास्त्र आदर्श को स्वीकारते हुए भी व्यवहार को - प्रत्यक्ष को अधिक महत्व देता है।
अतः वह मोक्ष पुरुषार्थ का इतना आदर्शात्मक एवं दूरगामी अर्थ स्वीकार करने की अपेक्षा नैतिक धरातल पर ही इसका अर्थ स्वीकारना अधिक संगत और युक्तियुक्त मानता है
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इस अपेक्षा से वह मुक्ति अथवा मोक्ष का लक्षण - कषायमुक्तिः किल - मुक्तिरेव - कषायों से मुक्ति ही मोक्ष है, इतना ही स्वीकार करना चाहता है । कषायों से मुक्ति का अभिप्राय यहाँ क्रोध, मान, कपट, लोभ की इतनी उपशांति लगाया जाना चाहिए, जिससे व्यक्ति न स्वयं दुःखी हो और न सम्पर्क में आने वालों को पीड़ित करे ।
आचार्य शंकर ने जब यह कहा वासनाप्रक्षयो मोक्षः - - वासनाओं का क्षय
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1. विवेक चूड़ामणि, 318