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________________ नैतिक प्रत्यय / 119 आचार्य हेमचन्द्र ने भी मार्गानुसारी के गुणों के सन्दर्भ में कहा है-सद्गृहस्थ धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों वर्गों की परस्पर अबाधक रूप से साधना करे।' मधुकर मुनिजी ने धर्म से मर्यादित काम (अर्थ भी) को गृहस्थ साधक के लिए विहित माना है। धर्म पुरुषार्थ-पुरुषार्थ प्रत्यय की अपेक्षा धर्म का अभिप्राय समाज को आरम्भ करने वाले नियमों अथवा सिद्धान्तों से है। वैसे धर्म धु-धारणे धातु से बना है। इसका अर्थ है धारण करना। धारवात् धर्ममित्याहुः धर्मों धारयति प्रज्ञाः। धर्म की इस परिभाषा में भी प्रजा (समाज) को धारण करने वाला धर्म कहा गया है और यह धर्म नीतिशास्त्र का प्रत्यय है। वस्तुतः मनुष्य का प्रयोजन है सुखी जीवन। धर्म का भी यही प्रयोजन है। नैतिक मानव अपने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों प्रकार के जीवन को सुखी बनाना चाहता है। इस दृष्टि से कणाद मुनि ने धर्म का लक्षण इन शब्दों में दिया है यतोऽभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धिः स धर्मः। धर्म मानव के अभ्युदय (worldly prosperity and happiness) तथा निःश्रेयस (spiritual prosperity and bliss) की सिद्धि (प्राप्ति) का हेतु (means of realisation) है। ___ यह सुख मानव को नैतिक (विस्तृत अर्थ में धार्मिक) जीवन जीने पर ही प्राप्त हो सकता है। इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तन के अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय प्रत्यय में धर्म-पुरुषार्थ प्रत्यय को प्रथम और प्रमुख स्थान दिया गया धर्म मानव के नैतिक आदर्शों का, अर्थ, भौतिक साधनों को काम, शारीरिक, मानसिक, प्राणात्मक (vital) इच्छाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करते अर्थ पुरुषार्थ-अर्थ पुरुषार्थ नीतिशास्त्र में धर्म के सहायक के रूप में ही स्वीकार किया गया है, न कि धन-संग्रह के रूप में। धन अथवा भौतिक साधनों का संग्रह तो अनैतिक है। 1. अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपिसाधनम्। -योगशास्त्र, 1/52 2. साधना के सूत्र, तृतीय, आवृत्ति, सन् 1984, पृ. 228 3. डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 82
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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