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नैतिक प्रत्यय / 117
विद्यार्थी जीवन में अनुशासन आदि अनेक प्रकार की नैतिकताओं का मानव जीवन में समावेश हो जाता है और यह उसे जीवन भर नैतिक बनाये रखती हैं क्योंकि इस अवस्था के संस्कार स्थायी रूप से सम्पूर्ण जीवन में रहते हैं।
गृहस्थ का यह नैतिक दायित्व है कि वह अतिथि का सत्कार करे, दान दे, समाज में अपना व्यवहार उचित बनाए रखे, पुत्र-पुत्रियों को योग्य शिक्षा दिलवाये, माता-पिता वृद्धजनों की सेवा करे तथा अन्य समाज सेवा के कार्य करे।
इसी प्रकार अन्य आश्रमों के भी विशिष्ट नैतिक कर्तव्य हैं जो नीतिशास्त्र की दृष्टि से नैतिक प्रत्ययों के रूप में मानव के दैनंदिन व्यवहार को प्रभावित और संचालित करते हैं।
त्रि-ऋण विचार
नीतिशास्त्र में ऋण प्रत्यय का अभिप्राय है-ईमानदारी से कुछ ऐसे कर्तव्यों को सम्पन्न करना, जो नैतिक दृष्टि से अनिवार्य हैं।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि मानव (1) देव-ऋण, (2) ऋषि ऋण और, (3) पितृ ऋण से दबा होता है, यानी इन तीनों का उस पर भार होता है और उसका नैतिक कर्तव्य है कि इन ऋणों से मुक्त होवे।
वहाँ इन ऋणों को चुकाने की विधि भी बताई गई है। देवऋण यज्ञ आदि से, ऋषिऋण विद्या पढ़ने से और पितृऋण (इसी में समाजऋण भी सन्निहित है) पुत्र उत्पन्न करने, समाज सेवा, सहायता, दान, त्याग आदि करने से उतरता है।
भगवान महावीर ने भी (1) माता-पिता, (2) स्वामी (पोषक) और (3) धर्माचार्य का ऋण मानव पर बताया है; किन्तु इन तीनों ऋणों के चुकाने के उपाय में अन्तर है, कहा है-यदि इन्हें शुद्ध धर्म साधना की ओर उन्मुख कर दिया जाय तो व्यक्ति इनके ऋणों से मुक्त हो सकता है।
यह तीनों ऋण मानव के नैतिक कर्तव्य हैं। यह नैतिक प्रत्यय इस रूप में हैं कि इनकी अवधारणा के फलस्वरूप मानव अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों को नीतिपूर्ण ढंग से पूरा करता है, साथ ही अपने देव, गुरु, पिता आदि वृद्धजनों के प्रति उसके हृदय में सम्मान रहता है। 1. (क) आचार्य हेमचन्द्र : योगशास्त्र, 1147-56
(ख) जैन धर्म की हजार शिक्षायें : मधुकर मुनि, पृ. 107-108 2. ठाणांग, ठाणा 3 सूत्र 135