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________________ 116 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन भगवान के प्रथम शिष्य और सम्पूर्ण संघ के नायक श्री गौतम गणधर ने भी आनन्द श्रावक से क्षमा मांगकर सद्गृहस्थ का गौरव बढ़ाया।' भगवान ने तो श्रावक को, साधु को माता-पिता के समान बताया है और श्रावकों को साधुओं के लिए तथा उनकी मोक्ष-साधना के हेतु आधार-भूत कहा स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में भी गृहस्थ आश्रम का उचित महत्व अस्वीकार नहीं है। ब्रह्मचर्य आश्रम के विषय में तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि यह जैनदृष्टि से स्वीकार्य है। पुराणों में बालकों का ब्रह्मचर्यपूर्वक विद्या-कलाओं के अध्ययन का वर्णन आता है। भगवान ऋषभदेव ने सभी कलाओं, विद्याओं, शिल्प, लिपि, गणित इत्यादि की शिक्षा दी। तब ब्रह्मचर्याश्रम के अस्वीकार का प्रश्न ही नहीं है। जिसे वैदिक परम्परा में संन्यास कहा जा सकता है जैनधर्म में वही श्रमणत्व है और श्रमणत्व ही जैन धर्म का प्रधान अंग है, जैन संस्कृति का प्राचीन नाम ही श्रमणधर्म अथवा श्रमण संस्कृति है। नैतिक प्रत्ययों के रूप में इन आश्रमों का विशिष्ट स्थान है। ब्रह्मचर्याश्रम विद्या-प्राप्ति की अवस्था है। उस समय विद्यार्थी के अनेक नैतिक कर्तव्य हैं। विद्यार्थी को चाहिए कि वह गुरु के अनुशासन (कठोर शब्दों) से कुपित न हो, विनयपूर्वक रहे, क्रूर व्यवहार न करे, व्यर्थ की बातों में अपना अधिक समय बर्बाद न करे, उचित समय पर पाठ पढ़े। 1. (क) उपासकदशांग, अध्ययन 1 (ख) इन्द्रभूति गौतम, पृ. 72-74 2. चत्तारि समणोवासगा पण्णत्ता, तं जहा-अम्मापिउसमाणे... -ठाणांग, ठाणा 4, सूत्र 321 3. देखिए-(क) आवश्यकनियुक्ति (ख) आवश्यकचूर्णि (ग) चउप्पन्न महापुरिसचरियं (घ) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र पर्व 1 (च) ऋषभदेव : एक परिशीलन, पृ. 144-150 4. अणुसासिओ न कुप्पेज्जा --उत्तराध्ययन सूत्र, 119 5. विणए ठवेज्ज अप्पाणं -उत्तराध्ययन सूत्र, 116 6. मा य चंडालियं कासी, बहुयं मा य आलवे। कालेण प अहिज्जित्ता.................।। -उत्तरा., 1110
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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