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नैतिक प्रत्यय / 115
किन्तु यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि भगवान ने इन वर्णों तथा जातियों की स्थापना कर्मानुसार और आजीविका के साधनों (पेशा) की दृष्टि से की थी, इनमें ऊँच-नीच की कोई भावना नहीं थी।
साथ ही यह जन्मना नहीं थे, जैसाकि वैदिक परम्परा में है, अपितु यह परिवर्तनीय थे। ___ आश्रम व्यवस्था, यद्यपि जैन धर्म में स्वीकार की गई है, किन्तु समुचित रूप में, इसमें वैसी कठोरता (rigidity) नहीं है, जैसी वैदिक परम्परा में है। कठोरता का अभिप्राय यह है कि वैदिक परम्परा में चारों आश्रमों का पालन क्रमशः होता है-पहले ब्रह्मचर्य फिर गृहस्थ, तदुपरान्त वानप्रस्थ और जीवन के अन्त में संन्यास।
वैदिक परम्परा के अनुसार ब्रह्मचर्य से व्यक्ति सीधा संन्यास नहीं ले सकता, उसका यह कार्य गर्हित और अनैतिक माना जाता है। वहाँ गृहस्थाश्रम पालन की अनिवार्यता 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति'-'पुत्रहीन की गति नहीं होती, उसकी आत्मा प्रेतयोनि में ही भटकती रहती है', इन शब्दों में प्रख्यापित की गई है।
जबकि जैन दृष्टि आश्रमों के इस अनुल्लंघनीय क्रम को स्वीकार नहीं करती। जैनागमों में 9 वर्ष का बालक भी दीक्षा ले सकता है, इस बात का स्पष्ट विधान है। स्वयं भगवान महावीर ने 9 वर्ष के बालक ‘अतिमुक्तक (अयवंता) को अपने कर-कमलों से दीक्षित किया था और उसने संसार के जाल को तोड़कर मुक्ति प्राप्त की थी।
भृगु-पुरोहित और उसके पुत्रों के संवाद में अपुत्रस्य गतिर्नास्ति के सिद्धान्त का खण्डन बड़े ही युक्तिपूर्ण ढंग से किया गया है।
इसका अभिप्राय यह नहीं है, कि भगवान महावीर ने गृहस्थाश्रम को बिल्कुल ही हेय बताया। अपितु सत्य यह है कि उन्होंने गृहस्थाश्रम को उचित महत्व दिया है, स्वयं अपने श्रीमुख से श्रावक (गृहस्थ) धर्म का उपदेश दिया और श्रावकों के तत्वज्ञान तथा सत्यनिष्ठा की प्रशंसा की।
1. (क) अन्तकृद्दशांग, वर्ग 6
(ख) भगवती शतक 5, उ. 4 2. उत्तराध्ययन सूत्र, इषुकारीय 14 वां अध्ययन 3.(क) उपासकदशांग सूत्र में भगवान द्वारा किया गया श्रावक धर्म का वर्णन है। (ख) चरित्तधम्मे दुविहे, तं जहा-अणगार धम्मे चेव आगार धम्मे चेव।
-ठाणांग सूत्र, ठाणा 2 4. उपासकदशांग सूत्र, अ. 1