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114 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भगवान महावीर ने आचारांग में स्पष्ट उद्घोष किया- जो उपदेश धनवान अथवा उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वहीं उपदेश निर्धन, विपन्न और निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए है ।'
यही कारण था कि भ. महावीर के श्रमणसंघ में चारों वर्णों के साधु थे । एक ओर ब्राह्मण वर्ण के वेदपाठी इन्द्रभूति गौतम थे तो चौदह हजार श्रमणों में उत्कृष्टाचारी धन्ना अणगार वैश्य कुल की शोभा थे । मेघकुमार, अभयकुमार आदि क्षत्रिय वंश के दीपक थे तो हरिकेशबल चांडाल कुल में उत्पन्न होकर भी सिद्ध-बुद्ध मुक्त हुए। यहां तक कि अनार्य देश में उत्पन्न आर्द्रककुमार मुनि ने भी मुक्ति प्राप्त की ।
इससे स्पष्ट है कि वर्णों के अनुसार मानव-मानव में भेद जैन धर्म को स्वीकार नहीं है ।
फिर भी भगवान महावीर ने कर्म के अनुसार वर्णों के नामकरण के सिद्धान्त को अपने प्रवचन में स्थान दिया -कर्म के अनुसार ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होते हैं ।
यद्यपि आगमिक युग में जैन विचारणा वर्ण और जाति व्यवस्था को नकारती है, किन्तु ईसा की ग्यारहवीं बारहवीं शताब्दी के आचार्य श्री जिनसेन और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र ने वर्णों और जातियों की उत्पत्ति भगवान ऋषभदेव द्वारा मानी है। कई ग्रन्थों में इस आशय के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
भगवान ऋषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र - इन तीन वर्णों की स्थापना की । यह वर्णन आवश्यकनिर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भी मिलता है तथा अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है ।
1. जहा पुत्रस्स कत्थइ तहा तुच्छस्स कत्थई । जहा तुच्छस्स कत्थइ तहा पुन्नस्स कत्थइ । । 2. कम्मुणा बम्भ्णो होइ कम्मुणा होइ खत्तिओ । वइस्सो कम्मुणा होइ सुद्दो हवइ कम्मुणा ।। 3. देखिए, ऋषभदेव : एक परिशीलन - श्री देवेन्द्र मुनि 4. उत्पादितास्त्रयोवर्णाः तदा तेनादिवेधसा ।
क्षत्रियाः वणिजः शूद्राः क्षतत्राणदिभिर्गुणैः । । 5. (क) कल्पलता : समयसुन्दर गणी, पृ. 199 (ख) पउमचरियं : विमलसूरि उ. 3/111-116 (ग) पश्वाच्चतुर्वर्णस्थापनं कृतम् ।
- आचारांग सूत्र, 1/2/6/102
- उत्तराध्ययन सूत्र, 25 / 33
-महापुराण, 183/16/262