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नैतिक प्रत्यय / 113
"When a class is a somewhat strictly hereditary, we may call it a caste."
—Charles Cowley (जब एक वर्ग पूर्णरूपेण वंशानुक्रम पर आधारित होता है तो हम उसे जाति कहते हैं।)
इसी प्रकार भारतीय नीति का एक अन्य प्रमुख प्रत्यय आश्रम व्यवस्था है। यह व्यवस्था वैदिक विचारकों द्वारा निर्धारित की गई है। इसमें मानव की आयु 100 वर्ष मानकर 4 विभागों अथवा आश्रमों में विभाजित की गई है___ (1) ब्रह्मचर्याश्रम (25 वर्ष तक की आयु)-इस काल में ब्रह्मचर्य की साधना करता हुआ बालक शिक्षा प्राप्त करता है तथा स्वयं को भावी जीवन के लिए सक्षम एवं योग्य बनाता है।
(2) गृहस्थाश्रम (26 से 50 वर्ष तक की आयु)-शिक्षा प्राप्त करने के बाद युवक गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है। न्याय-नीति द्वारा जीविका उपार्जन करके कुटुम्ब का पालन पोषण, माता-पिता आदि वृद्धजनों की सेवा, अतिथिसत्कार, दान आदि द्वारा जीवन सफल बनाता है। पुत्र-पुत्रियों को योग्य-शिक्षित बनाकर अपने गृहस्थ धर्म का सुचारु रूप से संचालन करता है।
(3) वानप्रस्थ आश्रम (51 से 75 तक की आयु)-इस आयु में पुत्र को घर-गृहस्थी का भार सौंप कर धर्म आराधना के लिए घर छोड़कर वन (ग्राम के बाहर की भूमि) में चला जाय। यदि पत्नी साथ रहना चाहे तो उसे भी रख सकता है, किन्तु मुख्य लक्ष्य धर्म-साधना का ही रहता है।
(4) संन्यासाश्रम (76 से 100 वर्ष तक की आयु)-इस समय पत्नी को भी त्याग दे और सभी से ममत्व छोड़कर ईश्वर-भक्ति, तप-जप-साधना आदि में प्रवृत्त हो जाये।
इस प्रकार अपने सम्पूर्ण मानव जीवन को सफल करे।
सौ वर्ष के जीवन की अवधारणा सामवेदोक्त ‘जीवेम शरदः शतं' के आधार पर निर्मित की गई है। सौ वर्ष की नीरोग, स्वस्थ आयु अथवा जीवन की सीमा वैदिक युग के मानव की आकांक्षा एवं चरम अभिलाभा रही थी। __ जैन दृष्टि-जहाँ तक वर्ण, जाति और आश्रम-वैदिक समाज के नैतिक प्रत्ययों का प्रश्न है, जैन दृष्टि में इनका कोई स्थान नहीं है। भ.. महावीर ने जाति एवं वर्ण को पूरी तरह नकार दिया था। उन्होंने सम्पूर्ण मानवों की एक ही जाति स्वीकार की थी। वर्ण और जाति के आधार पर मानव-मानव में भेद करना जैन दृष्टि से अनुचित ही नहीं, अनैतिक भी है।