SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के विविध आयाम, अवधारणाएं, नीति सम्बन्धी समस्याएं उनके समाधान, नीतिशास्त्र की प्रकृति तथा उसका अन्य शास्त्रों/विज्ञानों के साथ सम्बन्ध, नीतिशास्त्र के विवेच्य विषय, नैतिक प्रत्यय, नैतिक निर्णय और उन पर मनोवैज्ञानिक, वैज्ञानिक तार्किक प्रभाव इत्यादि विषयों का प्रामाणिक आधार पर जो गवेषणात्मक दृष्टि से विवेचन किया है, वह जहाँ एक और उनके गहनअध्ययन का द्योतक है, वहाँ दूसरी ओर उनके प्रतिपादन-कौशल का परिचायक है। ___आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी के जीवन में जैसे ऋजुता, सरलता एवं सहजता है, उनके निरूपण-विश्लेषण में भी तदनुरूप सरलता, सहजता के दर्शन होते हैं जो स्वाभाविक है। अत्यधिक कठिन एवं जटिल विषयों को जिस सरलता से वे व्याख्यात करते हैं, निश्चय ही वह उनके लेखन का असाधारण वैशिष्ट्य है। प्रस्तुत ग्रन्थ में उपर्युक्त विषयों का जो विशद विवेचन हुआ है, व नीति के क्षेत्र में अब तक हुए विकास का बड़ा क्रमबद्ध सुन्दर दिग्दर्शन कराता है। ऊपर जो नीति विषयक चर्चा की गई है, उस पर गहराई से विचार करें तो प्रकट होता है कि नीति सम्बन्धी समीचीनता और असमीचीनता का निर्णय केवल वर्तमान के आधार पर नहीं किया जाता रहा है। अतीत, वर्तमान तथा भविष्य की त्रिविध श्रृंखला को अथवा मुख्यतः सत् असत् मूलक भावी परिणाम को दृष्टि में रखते हुए वैसे निर्णय होते रहे हैं, जिनके आधार पर वर्तमान में दूषित या अनुचित दीखने वाले कार्य भी उत्तम और उचित माने जाते हैं। जैसे-विषकन्या के सम्बन्ध में जो पहले चर्चा की गई है, वहाँ चाणक्य ने राष्ट्र के ऐक्य परक विराट हित को दृष्टि में रखते हए उस कार्य को उचित और ग्राह्य माना है, जो यद्यपि स्थूल दृष्टि से देखने पर उचित नहीं लगता। रावणपुत्र मेघनाद के अनुष्ठान को भग्न किये जाने का प्रसंग भी इसी कोटि में आता है। रावण एक आततायी है, सती साध्वी पतिव्रता सीता का बलात् अपहरण करता है, जो किसी भी स्थिति में उचित कहे जाने योग्य नहीं है। मेघनाद अपने पिता के अस्तित्व और विजय के लिए युद्ध करता है, उस पिता के लिए, जिसने न्याय, नीति, मर्यादा और सदाचार को तिलांजलि दे दी है। वैसे गलत अभिप्रेत को लेकर विजय-लाभ की कामना करने वाले के दलन के लिए यदि कुछ मर्यादा-भंग भी होता है तो वह अनादेय नहीं
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy