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देखी जाती रही है। वे एक दूसरे को सह नहीं पाते। एक बड़े विद्वान को देखकर दूसरे में ईर्ष्या भाव जाग उठता है। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी इसके शत-प्रतिशत अपवाद हैं। निःसन्देह यह उनका सौभाग्य है कि इतनी शालीन सौम्य, सरल, मृदुल प्रकृति उन्हें प्राप्त हो सकी। वेद का एक बड़ा सुन्दर पद है
“विद्या वै ब्राह्मणमाजगाम, गोपाल मा शेवधिष्टेऽहमस्मि। असूयकायानृजवेऽयताय,
न मां ब्रूयाः वीर्यवती तथा स्याम् ॥" विद्या ब्राह्मण के पास आई और उससे कहने लगी-ब्राह्मण! तू मेरी रक्षा करना। मैं तुम्हारी बहुत बड़ी निधि हूँ। मुझे ऐसे व्यक्ति को मत देना, जो ईर्ष्यालु हो, जो ऋजु-सरल न हो, जो संयम युक्त न हो। यदि तुम ऐसा करोगे तो मैं शक्तिशालिनी बनूंगी, मुझ में ओज प्रस्फुटित होगा।
विद्या के ये उच्च आदर्श आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी के जीवन में साक्षात् सम्यक् अनुस्यूत देखे जाते हैं।
साधक के जीवन के दो मुख्य अंग हैं-ज्ञान तथा ज्ञान के अनुरूप चर्या का अनुसरण। दोनों का परस्पर सापेक्ष सम्बन्ध है। ज्ञान चर्या को सत्यप्रवण पथ दिखलाता है। उससे अनुप्रेरित, अभिचालित चर्या शक्ति और सार्थक्य प्राप्त करती है, जिसमें ज्ञान की फलवत्ता है। ये दोनों पक्ष जीवन में सन्तुलित, समन्वित रूप में सधते जाएँ तो साधक का जीवन सफल है। इन दोनों में “पढमं नाणं तओ दया" के अनुसार ज्ञान का प्राथम्य इसलिए है कि उससे क्रिया को गतिशील होने का विधिक्रम प्राप्त होता है। बाल्यावस्था से ही श्रमण-जीवन में दीक्षित आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी पांच महाव्रतों के धारक, अध्यात्म में सक्रिय साधक तो हैं ही, उनकी यह उत्कट ज्ञानाराधना उनकी साधकता को और अधिक स्फूर्तिमय, विकासमय, तेजोमय बना देती है, जिसे साधक के जीवन का अलंकरण कहा जाना चाहिए। ... आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी ने प्रस्तुत ग्रन्थ में नीति का मानदण्ड, नीति का आधार, नीति निर्णय के प्रेरक तत्व, नीति, अनीति, दुर्नीति, नीतिशास्त्र का उद्गम, विकास, वाङ्मय की विविध विधाओं में नीति के तत्व, पाश्चात्य देशों और प्राच्य देशों की नीति परम्पराएँ, भारतीय नीति