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प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वैदिकों, बौद्धों तथा जैनों की नीतियाँ परस्पर भिन्न हैं? क्या वे एक दूसरे के प्रतिकूल हैं? यदि उत्तर विधिपरक है तो क्या वे पारस्परिक प्रातिकूल्य के बावजूद नीतियाँ कहे जाने योग्य हैं? यदि उनमें किसी प्रकार का प्रातिकूल्य, वैषम्य वैपरीत्य नहीं है तो फिर उसके साथ जुड़े वैदिक, बौद्ध एवं जैन, इन भिन्न-भिन्न विशेषणों की सार्थकता ही क्या है?
केवल भारत की ही बात क्यों करें, पश्चिमी देशों में भी "नीति" विषय चिरकाल से चर्चित रहा है। अरस्तु, प्लेटो आदि ने इस पर गहन चिन्तन किया। चीन आदि पूर्वी देशों में भी कन्फ्यूशियस जैसे विचारकों ने इस पर गहराई से सोचा, सिद्धान्त निरूपित किए। इस समय पश्चिमी चिन्तनधारा में नीति के लिए Ethics तथा Morality आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं।
__ प्रस्तत ग्रन्थ “जैन नीतिशास्त्रः एक परिशीलन" के लेखक प्रबद्ध मनीषी, शताधिक ग्रन्थों के रचनाकार, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि जी ने इन सभी पक्षों को ध्यान में रखते हुए जैन नीति पर जो साहित्यिक सृजन किया है, वह सचमुच अपने आप में अनूठा है। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी का व्यक्तित्व ज्ञानाराधना का एक सजीव निदर्शन है, जो अपने-आप में सहज आकर्षण लिए हुए है। राजस्थान, दिल्ली आदि में बहुत बार उनके सम्पर्क में आने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। अनेक विषयों पर गहन चिन्तन, विचार-विमर्श तथा चर्चा के प्रसंग भी रहे। मुझे लगा, निश्चय ही ये एक ऐसे अद्भुत मानव हैं, जिन्होंने अपने आपको सारस्वत आराधना में सर्वतोभावेन समर्पित कर दिया है। ग्रन्थों के अम्बार से घिरे जब उन्हें देखते हैं तो ऐसे प्रतीत होता है कि वे अध्ययन-अनुशीलन के समय समस्त जगत को विस्मृत कर अपने आपको शास्त्रानुशीलन के सागर में मानो खो देते हैं। गम्भीरता अध्ययन, प्रतिभा और प्रज्ञा तो मांगता ही है; वह बहुत बड़ा श्रम भी मांगता है। श्रम का संबल पाकर संस्कारलभ्य मेधा शतमुखी विकासप्रवण हो जाती है। आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी में यह सब सहज रूप में सधा है। स्वाध्याय को जो तप कहा है, वह उनके जीवन में यथावत् रूप में प्रतिफलित है। एक
ओर बहुत बड़ी विशेषता मैं उनमें पाता हूँ, इतने बड़े अध्येता, विचक्षण विलक्षण विद्वान होते हुए भी वे बड़े विनयशील हैं। वैदुष्य, पांडित्य का थोड़ा भी अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाया है। वे बड़े मधुर प्रिय तथा शिष्ट गुणग्राही हैं, विद्वानों का बहुत आदर करते हैं। विद्वानों में प्रायः एक कमी