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नैतिक प्रत्यय / 111
श्री पांडुरंग वामन काणे ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि वर्ण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ में गौरवर्ण आर्यों तथा कृष्णवर्ण दासों के लिए होता था।
नृजातिविज्ञान (Anthropology) में अब तक यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है-दक्षिणी अफ्रीका की जातियाँ कृष्णवर्णीय कही जाती हैं, भारतीयों को गौरांग अंग्रेज तिरस्कारपूर्ण शब्दों में ब्लैक मैन (Black men) कहते थे।
किन्तु नैतिक प्रत्यय के रूप में वर्ण शब्द से रंग ग्रहण नहीं किया जाता। यहां तो वर्ण स्तर (status) अथवा ऊँच-नीच की भावना को अभिव्यक्ति देता है।
भारतीय समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-यह चार वर्ण माने गये हैं। वैदिक साहित्य में इनकी बहत ही विस्तृत चर्चा है। ऋग्वेद' से लेकर पुराण आदि इस चर्चा से भरे पड़े हैं। स्मृतियों में इनके कर्तव्याकर्तव्य की विस्तृत विवेचना है। गीता में भी वर्णो की संरचना श्रीकृष्ण ने स्वयं की है, ऐसा उल्लेख मिलता है।
लेकिन प्रारम्भ में वर्ण व्ययवस्था जन्म के अनुसार नहीं अपितु कर्म के अनुसार थी ऐसा उल्लेख गीता, शुक्रनीति आदि ग्रन्थों से स्पष्ट होता है। इसी धारणा के अनुसार श्री भीखनलाल आत्रेय ने अपना मत अभिव्यक्त किया है
प्राचीन वर्ण व्यवस्था कठोर नहीं थी, लचीली थी। वर्ण-परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था क्योंकि आचरण के कारण वर्ण परिवर्तित हो जाता था। उपनिषदों में वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है।
गीता में वर्ण व्यवस्था के पीछे मनोवैज्ञानिक आधार का समर्थन डा. राधाकृष्णन और गैराल्ड हर्ड ने भी किया है। वह आधार है-मानवीय स्वभाव 1. (क) ऋग्वेद, पुरुष सूक्त 10/90 (ख) मनुस्मृति, 8/413 आदि 2. (क) चातुर्वण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः। तस्य कर्तारमपि मां विद्ध यकर्तारमव्ययम्।। -गीता, 4/13 (ख) ब्राह्मण क्षत्रिय विशां शूद्राणां च परंतप!।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुण ।। -गीता, 18/41 3. न जात्या ब्राह्मणश्चात्र क्षत्रियो वैश्य एव वा।
न शूद्रो न च वै म्लेच्छो भेदिता गुणकर्मभिः।। -शुक्रनीति 4. श्री भीखनलाल आत्रेय : भारतीय नीतिशास्त्र का इतिहास, पृ. 625 5. (क) श्रीमद्भगवत् गीता (राधाकृष्णन), पृ. 353 (ख) गीता, 18/48 की व्याख्या, गोरखपुर संस्करण में (ग) गीता (शांकर भाष्य), 18/41, 48