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108 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
पुण्य-पाप नीतिशास्त्र के प्रत्यय हैं, जो सार्वभौम हैं, पशुजगत तक भी इनका दायरा विस्तृत है। उदाहरण के लिए विश्वासघात, कृतघ्नता आदि पाप है। पशु भी अपने विश्वासघाती को क्षमा नहीं करते, पशु स्वभाव के अनुसार कठोरतापूर्वक उसे मार डालते हैं।
इसी प्रकार परोपकार आदि पुण्य कार्य हैं। पशु भी अपने उपकारी के प्रति कृतज्ञता के भाव रखते हैं।
नैतिक दृष्टि से पुण्य वे सद्कार्य हैं जो सार्वभौम हैं और जिनको करने से स्वयं करने वाले को भी प्रसन्नता होती है और जिसके प्रति किये जाते हैं, उसे भी सुख-शांति मिलती है। यह कार्य दोनों के लिए हितकारी हैं, उनके जीवन को उन्नत बनाते हैं। दयालुता (piety), करुणा, दान, सेवा आदि सभी पुण्य कार्य हैं।
इसके विपरीत क्रूरता, कठोरता, निर्दयता, कृपणता, ठगी, जालसाजी, धोखा देना, विश्वासघात आदि सभी पाप प्रत्यय हैं। इनसे स्वयं की आत्मा तो पतित होती ही है, दूसरों का जीवन भी विषाक्त हो जाता है। संकल्प की स्वतन्त्रता ____ संकल्प की स्वतन्त्रता (freedom of will) नीतिशास्त्र का महत्वपूर्ण प्रत्यय है, इसके बिना नीतिशास्त्र की संभाव्यता ही कल्पना मात्र है।
काण्ट का मत है कि स्वतन्त्रता अनुभव-पूर्व (a-priori) है, इसे सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं। जब यह कहा जाता है-“तुम्हें यह करना चाहिए" तो हम व्यक्ति की संकल्प की स्वतन्त्रता को स्वीकार कर लेते हैं। ‘चाहिए' में ही यह स्वतन्त्रता निहित है।'
किन्तु स्वतन्त्रता में ही उत्तरदायित्व (responsibility) का प्रत्यय भी सन्निहित है। व्यक्ति की स्वतन्त्रता असीमित (unlimited) नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता कि व्यक्ति मनमानी स्वतन्त्रता ले सके। यह तो स्वच्छन्दता (despot) हो जायेगी, अनैतिकता बन जायेगी।
राजा श्रेणिक के राज्य में 6 गोष्ठिकों (स्वच्छन्द युवकों) की असीमित स्वतन्त्रता, जो घोर अनैतिकता बन चुकी थी, उसने सीधे-सादे नागरिक
1. (क) डा. रामनाथ शर्मा : नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 71
(ख) चटर्जी, शर्मा, दास : नीतिशास्त्र, पृष्ठ 84