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नैतिक प्रत्यय / 107
नैतिक प्रत्ययों की संकल्पना के अनुसार वे सभी भावनाएँ, गुण और कार्य सद्गुण हैं जो व्यक्ति के स्वयं के व्यक्तित्व को उन्नत बनाते हैं और परिवार, समाज आदि में सुव्यवस्था बनाए रखने में सहायक होते हैं।
इनके विपरीत दुर्गुण वे अनैतिक भावनाएँ आचरण और कार्य हैं जो व्यक्ति को, समाज को विशृंखलित करते हैं।
सद्गुण तथा दुर्गुणों की विशिष्ट विशेषता यह है कि जन्मजात भी होते हैं और अर्जित भी। बाह्य परिस्थितियाँ इनमें बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। विपरीत परिस्थितियों अथवा लोमहर्षक घटना से सरल व्यक्ति भी दुर्गुणी बन जाता है, जैसे सरल-सीधा अर्जुनमाली' अपनी पत्नी के साथ हुए अत्याचार के प्रतिशोध के आवेग में बहक कर हत्यारा बन गया था और सद्गुणी अहिंसक सेठ का निमित्त तथा बाद में भगवान महावीर का निमित्त पाकर स्वयं गुणी बना था। क्षमा गुण धारण करके मुक्त हो गया था।
इसी प्रकार चांडाल क्रोधी हरिकेशबल' ने देखा कि विषसहित सर्प को सभी लोग मारते हैं तथा निर्विष सर्प को कोई छेड़ता भी नहीं। इस निमित्त को पाकर उसने कटु भाषा एवं क्रोध रूपी दुर्गुण को त्याग दिया, क्षमाशील बनकर सद्गुणी हुआ और श्रेष्ठ तपस्वी बनकर उन्होंने परम शुभ-शुद्ध मुक्ति को प्राप्त कर लिया। पुण्य और पाप
पुण्य (merit) का अभिप्राय धर्मशास्त्रों के अनुसार मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति और पाप (demerit) का अभिप्राय मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति है। नीतिशास्त्र में इन शब्दों का प्रयोग लगभग इसी अर्थ में होता है। लेकिन मैकेंजी जैसे नीतिशास्त्री इन शब्दों के लिए उचित-अनुचित का प्रयोग अधिक अच्छा मानते हैं।
किन्तु उचित-अनुचित समाज-सापेक्ष शब्द हैं, जबकि पुण्य-पाप आत्मसापेक्ष । उचित-अनुचित की अवधारणा देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार भिन्न हो सकती है। जैसे-पश्चिम में मांस एवं मदिरा का सेवन अनुचित नहीं माना जाता, जबकि भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अनुसार यह सर्वथा अनुचित है, अनैतिक है। 1. अर्जुनमाली की घटना के लिए देखें-अन्तकृद्दशा सूत्र, 5/3 2. हरिकेशबल की पूरी घटना के लिए देखें-उत्तराध्ययन सूत्र, अ. 12 की वृत्ति