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106 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भारतीय संस्कृति में इन सभी विशुद्ध नैतिक कर्तव्यों को एक शब्द 'सदाचार' द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
जैन दृष्टि-भगवान महावीर ने जो ‘उज्जुपन्ने उज्जुदंशी' विशेषण साधक को दिया है उसका अभिप्राय सरलमति, सरलगति और सरलशील सम्पन्नता है और हृदय की यह सरलता ही सदाचार का आधारबिन्दु है।
जैन आगमों के प्रसिद्ध भाष्यकार जिनदासगणी ने इस विषय में एक महत्वपूर्ण बात कही है कि-निषिद्ध कर्म क्या है और विहित कर्म क्या है, इसकी सबसे बड़ी कसौटी व्यक्ति का हृदय है। यदि व्यक्ति सच्चाई एवं प्रामाणिकता के साथ कर्म करता है तो वह विहित कर्म ही माना जायेगा
कज्जे सच्चेण होयव्वं तैत्तिरीय ब्राह्मण में इन्हीं शब्दों का पोषण किया गया है। वहाँ कहा गया है
वृजनमनृतं दुश्चरितम् ।
ऋजुकर्म सत्यं सुचरितम् ॥ कुटिलतापूर्वक किया गया कर्म (कर्तव्य) अनाचार अथवा दुराचार है और सरलतापूर्वक (ऋजुपन से) किया गया कर्म सदाचार है।
सदाचार अथवा विशुद्ध नैतिक कर्तव्य को जाँचने-परखने की एकमात्र कसौटी व्यक्ति की स्वयं की प्रज्ञा और अन्तःकरण ही है। वही निश्चित कर सकता है कि उसका कौन सा कर्म सदाचार है और कौन-सा नहीं।
सद्गुण
विभिन्न नैतिक प्रत्ययों में सद्गुणों का भी अपना एक विशिष्ट स्थान है। सद्गुण (virtue) का अभिप्राय है सद् (अच्छे) गुण। इसके विरोधी दुर्गुण (vices) होते हैं। ___मानव स्वभाव की विचित्रता यह है कि इसमें सद्गुण और दुर्गुण दोनों ही पाये जाते हैं। कभी बाह्य निमित्त पाकर सद्गुण उभरते हैं तो कभी दुर्गुण प्रस्फुटित हो जाते हैं। ____ उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि जो दस प्रकार के धर्म बताये गये हैं, नीतिशास्त्र की दृष्टि से उनकी परिगणना सद्गुणों में होती है। इसके अतिरिक्त प्रमोद, कारुण्य, सर्वजनहितकारिता, अभावग्रस्तों को दान देना आदि भी सद्गुण ही हैं। 1. निशीथभाष्य, 5248