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________________ नीतिशास्त्र के विवेच्य विषय / 95 भारत में धर्म पालन-धर्म का व्यवहारिक आचरणीय रूप और सदाचार लगभग समानार्थक माने गये हैं। कहा गया है-आचारः परमो धर्मः आचार-सदाचार ही परम-प्रमुख धर्म है तथा न धर्मो धार्मिकैः विनाधार्मिक व्यक्तियों के अभाव में धर्म नहीं टिक सकता। और धार्मिक वही व्यक्ति हो सकता है, जो सदाचारी हो। अतः सदाचार धर्म और नीति दोनों से ही सम्बद्ध है। सदाचार के अन्तर्गत मानव का चरित्र (character) व्यवहार (conduct) और शील (virtue) तीनों ही समाहित होते हैं। इन सबकी व्याख्या, विवेचना और विश्लेषण करना, नीतिशास्त्र का कार्य है। स्मृतियों आदि में जो मानव के सदाचार का वर्णन है, वह सब नीतिशास्त्र का ही विषय है। जैनधर्म के आचारांग, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, उपासकदशांग आदि सूत्रों में भी मुख्यतः आचार का निर्देश है। आवश्यकचूर्णि भाष्य, व्यवहारभाष्य में भी सदाचार सम्बन्धी वर्णन है। योगबिन्दु, योगशास्त्र आदि ग्रन्थों में भी श्रावकों के आचार का निर्देश है। यह सब एक दृष्टि से विचार किया जाय तो नीतिशास्त्र का ही विषय है। ___ जैन साहित्य में वसुनन्दी श्रावकाचार, रत्नकरंड श्रावकाचार आदि गृहस्थ के सदाचार की व्याख्या व निर्धारण करने वाले पचासों ग्रन्थ लिखे गये हैं। सदाचार के अन्तर्गत मानव चरित्र क्या है? चरित्र का उद्देश्य तथा महत्व क्या है? सच्चरित्र, असच्चरित्र तथा दुश्चरित्र में क्या अन्तर है? इनको निर्धारित करने वाले मानदण्ड क्या हैं? समाज के सभी अथवा अधिकांश सदस्य किसी प्रकार सच्चरित्री बने सकते हैं? सच्चरित्र के लिए कौन-से कार्य करणीय हैं और कौन-से अकरणीय? आदि सभी पहलुओं का विवेचन नीतिशास्त्र का कार्य है। सदाचार में दो शब्द समाहित हैं-सत् और आचार। कोई आचार जब व्यक्ति के, स्वयं के लिए तथा साथ ही समाज के लिए भी, सत् अर्थात् कल्याणकारी होता है तभी वह सदाचार कहलाता है। और कल्याण (good) नीतिशास्त्र का विषय है, अतः नीतिशास्त्र को इस अपेक्षा से सदाचार-शास्त्र भी कहा जा सकता है। 1. आचार्य समन्तभद्रः रत्नकरंड श्रावकाचार, श्लोक 26
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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