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________________ नीतिशास्त्र के विवेच्य विषय / 93 पश्चिमी विचारकों हेगेल तथा काण्ट ने न्याय तथा कर्त्तव्य को ही श्रेयमूलक माना है, किन्तु भारतीय विचारकों ने श्रेय को न्याय व कर्त्तव्य से श्रेष्ठ स्वीकार किया है । भगवान महावीर ने कहा है - मनुष्य को धर्म सुनना इसलिए आवश्यक है कि उससे उसे श्रेय और अश्रेय का ज्ञान हो जाता है और श्रेय - अश्रेय को जानने के बाद जो श्रेय है, जीवन में हितकारी है उसका आचरण उसे करना चाहिए । कठोपनिषद् में भी श्रेय और प्रेय का विवेचन करने के बाद श्रेय के आचरण की प्रेरणा दी गई है । ' यहां विशेष ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिमी नीतिशास्त्र न्याय एवं कर्त्तव्य का विवेचन श्रेय (good) के साथ करता है । 'कोई कार्य अथवा व्यापार श्रेय क्यों है? क्योंकि यह न्यायमूलक है।' यह हेगेल की धारणा है और कांट 'किसी कार्य या क्रिया अथवा व्यापार को श्रेय इसी कारण मानता है कि कर्त्तव्य 'अनुसार है ।' के किन्तु भारतीय दर्शन, दूसरे शब्दों में नीतिशास्त्र, जब न्याय एवं कर्त्तव्य के क्षेत्र से आगे बढ़कर श्रेय के क्षेत्र में पहुँचता है तो वह धर्मशास्त्र बन जाता है | जहां न्याय एवं कर्त्तव्य में विरोध का आभास होता है वहां श्रेय उनका निर्णय करता है । इसीलिए श्रेय धर्मशास्त्र का प्रतिनिधि बनता है, और धर्म के क्षेत्र में आता है । आचार्य जिनदास गणी ने कहा है- “ सभी धर्म या कर्त्तव्य सिद्धि के साधन नहीं हो सकते, किन्तु जो जिसके योग्य अथवा श्रेय का अनुगामी है, वह साधन होता है। श्रेय और शिव दोनों शब्द एक ही अर्थ के सूचक हैं, और वह है कल्याण । इस 'कल्याण' अथवा श्रेय का विवेचन करना नीतिशास्त्र का विषय है । 'सत्य' का विवेचन तर्कशास्त्र का विषय है और 'सुन्दर' का विवेचन सौन्दर्यशास्त्र का । 1. जं जेयं तं समायरे । - दशवैकालिक, 4/11 2. श्रेश्यच प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः । श्रेयोहि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते । । - कठोपनिषद्, 2 / 2 / 12 3. धम्मो वी जओ सव्वो न साहणं किन्तु जो जोग्गो । - विशेषावश्यकभाष्य, 331
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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