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92 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
भगवान महावीर ने कहा है
प्रत्येक व्यक्ति को नित्य प्रातःकाल उठकर सर्वप्रथम यह विचार करना चाहिए-मैंने क्या कर्तव्य किया है और क्या नहीं किया और क्या करना शेष है? ऐसा कौन-सा कर्तव्य है, जिसे मैं कर तो सकता हूँ, मेरे लिए सम्भव है, किन्तु उस कर्तव्य का मैं पालन नहीं कर रहा हूँ। अपने आपसे इस प्रकार के प्रश्न करके व्यक्ति को स्वयं अपने कर्त्तव्य पथ-करणीय कर्तव्यों को स्पष्ट करके उनका आचरण करना चाहिए। ____कर्त्तव्य पथ को स्पष्ट करते समय तथा करणीय कर्तव्यों का निर्धारण करते समय कर्त्तव्य एवं अकर्त्तव्य, करणीय तथा अकरणीय का निर्णय करना आवश्यक है। इस निर्णय के लिए विधि-निषेध के मानदण्ड भी निश्चित करने अनिवार्य हैं। साथ ही कर्त्तव्य के हेतु एवं साधन भी निश्चित करने पड़ेंगे और फिर फलाफल पर भी विचार करना पड़ेगा।
कर्तव्य सम्बन्धी यह सम्पूर्ण विवेचन नीतिशास्त्र का विषय है। इसीलिए नीतिशास्त्र को कर्त्तव्य का शास्त्र भी कहा गया है।
श्रेय का विवेचन
न्याय, व्यक्ति मात्र का अधिकार है और इस अधिकार का आधार है कर्तव्य। कर्त्तव्य करने वाले को ही अधिकार प्राप्त होता है। इस दृष्टि से अधिकार-न्याय की अपेक्षा कर्त्तव्य बड़ा है और कर्तव्य से भी आगे है-श्रेय।
न्यायपूर्ण आचरण क्यों किया जाय? कर्तव्यों का पालन किसलिए करना चाहिए? इन जैसे सभी प्रश्नों का उत्तर है-श्रेय; श्रेय प्राप्ति के लिए।
प्लेटो ने कहा है-न्याय और कर्तव्य पालन से समाज का हित या श्रेय होता है, इसलिए न्याय और कर्त्तव्य व्यक्ति के लिए आवश्यक है।
और न्याय तथा कर्त्तव्य पालन की स्थिति श्रेय के प्रत्यय में है। इसीलिए नीतिशास्त्र श्रेय का विवेचन करता है।
श्रेय क्या है? अश्रेय क्या है? श्रेय की प्राप्ति कैसे और किस प्रकार हो सकी है? इन सब प्रश्नों का उत्तर नीतिशास्त्र देता है।
1. से पुव्वरत्तावररत्त काले संपक्खिए अप्पगमप्पएणं। किं में कडं किच्चमकिच्च सेसं किं सक्कणिज्जं न सभायरामि।।
-दशवैकालिक चूलिका, 2/12