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नीतिशास्त्र की प्रकृति और अन्य विज्ञान / 87
यदि विशाल दृष्टिकोण से विचार किया जाय तो नैतिकता और धर्म के व्यावहारिक पक्ष में कोई अन्तर नहीं है। नैतिक नियम वही हैं जो धार्मिक नियम हैं। हिंसा न करना, झूठ न बोलना, धोखा-फरेब आदि न करना-ये सभी नैतिक नियम भी हैं और धार्मिक नियम भी। नीति और धर्म दोनों में ही इनका समान महत्व है।
इसीलिए कहा गया है धर्म और नीति-दोनों ही तत्व जीवन निर्माण में आवश्यक हैं, इनके बिना जीवन मृत्यु तुल्य है।
__ अतः नीति और धर्म को एक दूसरे से पृथक नहीं किया जा सकता, दोनों का जीवन में समान महत्व है, दोनों ही साथ-साथ समानांतर चलते हैं।
धर्म का लक्ष्य है-व्यक्ति को उत्तम सुख स्थान में पहुंचाना, और नीति का लक्ष्य है सामाजिक, वैयक्तिक आदि बाह्य परिस्थितियों का ऐसा निर्माण जिनसे व्यक्ति उस सुख-स्थान में पहुंच सके। इसीलिए जैनाचार्यों ने धार्मिक जीवन की पृष्ठभूमि के रूप में नैतिक जीवन को स्वीकार किया। दूसरे शब्दों में नैतिकता ही धार्मिकता की आधारशिला है।
नीतिशास्त्र और दर्शनशास्त्र (Ethics and Philosophy)
विस्तृत दृष्टिकोण से विचार करने पर दर्शनशास्त्र इन पाँच विषयों का समन्वित रूप है-(1) प्रमाणशास्त्र (Epistemology), (2) सृष्टि विज्ञान (Cosmogony and Cosmology), (3) सत्ताशास्त्र (Ontology, (4) तत्वदर्शन अथवा तत्वविद्या (Metaphysics) और (5) ईश्वर-तत्व-दर्शन (Theology)।
इन पाँचों विषयों में से तत्वविद्या, आत्मदर्शन, ईश्वरदर्शन से नीति का सीधा सम्बध है। नैतिक नियमों के पालन में ही मानव आत्मा शुभात्मा और परमात्मा के समीप पहुंचता है।
नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र की अनेक समस्याओं की विवेचना करता है। ऐसा भी है कि दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार नैतिक नियम भी प्रभावित होते हैं, बदलते हैं, परिवर्तित होते हैं।
जिन समाजों में आत्मा को अमर माना जाता है और उसके पुनर्जन्म सिद्धान्त को स्वीकार किया जाता है, वहीं नैतिक मूल्यों की स्थापना होती है। अन्यथा तो भारत के चार्वाक और यूनान के एपीक्यूरियनिज्म के अनुसार