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86 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन
“आधुनिक युग का अर्थशास्त्र केवल 'क्या है' का विज्ञान रहकर ही संतुष्ट नहीं है। वर्तमान समय में उपदेशों के बजाय सामाजिक तत्व पर अधिक बल दिया जाता है। अब अर्थशास्त्र के दर्शन की पुनः स्थापना की ओर प्रवृत्ति है इसका तात्पर्य मानव-जीवन के परम आदर्श की खोज से है, जहाँ तक कि वे आदर्श आर्थिक प्रक्रिया की सीमाओं में खोजे जाने संभव हो सकें।"
यह आदर्श वे ही हैं जो नीतिशास्त्र निर्धारित करता है। अतः अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र कुछ मतभेदों के होते हुए भी परस्पर सम्बन्धित हैं। नीतिशास्त्र और धर्म (Ethics and Religion)
धर्म और नीति का बहुत ही गहरा सम्बन्ध है। नीति का निर्माण धर्म करता है और धर्म को तेजस्वी तथा प्रभावशाली बनाने में नीति पूर्णतया सहयोगिनी बनती है। इसे दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि धर्म भाई है और नीति बहन है। ये दोनों परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।
जैन आचार्यों ने नीति को धर्म की अनुगामिनी बताया है--
णीइ धम्माणुगामिणी। धर्मविहीन नीति नीति नहीं कहलाती। और साथ ही धम्माणुजोयणी, धर्म के साथ सम्बन्ध रखने वाली भी माना है।।
नीति का परम शुभ (ultimate good) वही है जो धार्मिक जीवन के व्यावहारिक पक्ष की पराकाष्ठा है। धर्म ने जिसे सर्वभूतहितेरताः कहा, नीति ने उसी को परम शुभ कहा है। इसी को जैन विचाराधारा ने स्वपरकल्याण के रूप में व्याख्यायित किया।
कुछ पश्चिमी विचारक तो नीति को ही धर्म मानते हैं। मैथ्यू आरनाल्ड के शब्दों में-“धर्म, भावना से युक्त नैतिकता के अतिरिक्त कुछ नहीं है"2
1. “Present day Economics is not altogether content to remain a
science of'what is'. The current emphasis is less didactic and more social in character. The tendency now is in the direction of reestablishing a philosophy of Economics. And by this I mean a search for the ultimates of human life in so far as these can be discovered within the limits of economic process." -E.W. Goodhue: Economics as Philosophy, International Journal
of Ethics, Vol.xxxvi, No.1. 2. Religion is nothing but morality touched with emotion.
-Mathew Arnold