SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 80 / जैन नीतिशास्त्र : एक परिशीलन इस स्थिति में नीतिशास्त्र को मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, मानसशास्त्र और यहाँ तक कि जीवविज्ञान की सहायता भी अपेक्षित होगी । मनोविज्ञान आदर्श के मूल प्रेरक कारणों को बतलाता है । समाजशास्त्र से यह ज्ञात होता है कि किस विशिष्ट समाज के लिए कौन से आदर्श हितकर हैं । मानसशास्त्र बतलाता है कि आदर्श किस प्रकार विकसित होते हैं । जीवविज्ञान मानव की प्रकृति और जैविकीय तथ्यों की विवेचना करके इस बात को निश्चित करता है कि कौन से आदर्श मानव की प्रकृति के अनुकूल हैं । यदि इन तथ्यों की अवहेलना करके कोई आदर्श स्थापित कर भी दिया गया तो वह खोखला सिद्ध होगा, स्थायी नहीं रह सकेगा । इसी प्रकार आदर्शों की स्थापना में राजनीतिक एवं आर्थिक परिस्थितियों का भी महत्वपूर्ण भाग होता है और इनके अध्ययन के लिए राजनीतिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र की सहायता भी अपेक्षित होती है। वस्तुतः श्री डब्लू. एम. अरबन का यह कथन सत्य है नीतिशास्त्र 'क्या होना चाहिए' को निश्चित करने की चेष्टा करता है, किन्तु ऐसा वह 'क्या है' के विशद ज्ञान के आधार पर ही कर सकता है । ' और इस 'क्या है' (What is ) के विशद ज्ञान के लिए नीतिशास्त्र को अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध स्थापित करना ही पड़ता है । अन्य विज्ञानों के ज्ञान के अभाव में नीतिशास्त्री इन आदर्शों की स्थापना नहीं कर सकता। उसके स्थापित किये आदर्श बालू की दीवार ही सिद्ध होंगे । जैन साहित्य में एक शब्द आता है - बहुसुय ( बहुश्रुत ) 2 । उत्तराध्ययन सूत्र में बहुश्रुत की प्रशंसा में बहुत कुछ कहा गया है। धर्म, नीति, आचार आदि के अनेक सैद्धान्तिक, व्यावहारिक नियम बहुश्रुतों द्वारा ही निश्चित किये गये हैं । यह बात उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होती है कि नीतिशास्त्र को अन्य विज्ञानों से सम्बन्ध रखना आवश्यक है । नीतिशास्त्री एवं नैतिक पुरुषों को अन्य विज्ञानों - ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है। कुछ प्रमुख विज्ञानों से नीतिशास्त्र का सम्बन्ध जानना उपयोगी है । 1. Ethics seeks to determine 'what ought to be', but it can be so only on the basis of adequate knowledge of 'what is'. -W.M. Urban : Fundamentals of Ethics, p. 16 2. सभी शास्त्रों का व्यापक ज्ञान रखने वाले बहुश्रुत होते हैं ।
SR No.002333
Book TitleNitishastra Jain Dharm ke Sandharbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherUniversity Publication Delhi
Publication Year2000
Total Pages526
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy