________________
श्री गिरनार तीर्थ
तीर्थाधिराज 1. श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, 140 सें. मी. (श्वेताम्बर मन्दिर ) । 2. श्री नेमिनाथ भगवान, श्याम वर्ण, पद्मासनस्थ, (दिगम्बर मन्दिर ) ।
तीर्थ स्थल जूनागढ़ के पास समुद्र की सतह से लगभग 3100 फुट (945 मीटर) ऊँचे गिरनार पर्वत पर ।
प्राचीनता
श्वेताम्बर मान्यतानुसार पुराने जमाने में इसे उज्यन्तगिरी व रैवतगिरि आदि भी कहते थे । श्वे. जैन शास्त्रों में इसे नेमिनाथ पर्वत व शत्रुंजयगिरि की पाँचवीं टुंक भी बताया गया है । प्रथम तीर्थंकर के काल से लेकर अन्तिम तीर्थंकर के काल तक अनेक चक्रवर्ति, राजा व श्रेष्ठीगण संघ सहित श्री शत्रुंजय की यात्रा आये, तब प्रभासपाटण होते हुए रैवताचल की यात्रार्थ भी आये थे । इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि यह तीर्थ नेमिनाथ भगवान के पूर्व का है। व उसके पूर्व भी अनेकों मुनिगण तपस्या करके यहाँ से मोक्ष सिधारे होंगे । वर्तमान चौवीसी के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान ने यहीं पर दीक्षा ग्रहण की व तपश्चर्या करते हुए केवलज्ञान पाकर मोक्ष सिधारे । रेवानगर के राजा श्री नेबुसदनेझर द्वारा वीर नि. सं. पूर्व पहली शताब्दी (ई. पूर्व छठी शताब्दी) में यहाँ नेमिनाथ भगवान का मन्दिर निर्मित करवाने का उल्लेख प्रभासपाटण में से प्राप्त एक ताम्रपत्र में मिलता है । आचारंगसूत्र में भी इस तीर्थ का उल्लेख किया गया है । काश्मीर के श्रेष्ठी श्री अजित शाह तथा रत्ना शाह द्वारा वीर नि. सं. 1079 (वि. सं. 609) में इस तीर्थ का उद्वार होने का उल्लेख है । बारहवीं शताब्दी में सिद्धराज के मंत्री श्री सज्जन शाह व वस्तुपाल तेजपाल द्वारा यहाँ जीर्णोद्धार होने का उल्लेख है । तेरहवीं शताब्दी में मंडलिक नाम के राजा ने यहाँ स्वर्ण पत्तरों से मन्दिर बनवाया था ऐसा उल्लेख है । चौदहवीं शताब्दी में सोनी समरसिंह, सत्रहवीं शताब्दी में व मान व पद्मसिंह नाम के भाइयों ने व बीसवीं शताब्दी में नरसी केशवजी ने इस तीर्थ का उद्धार करवाया था। इनके अलावा भी प्रियदर्शी राजा संप्रति, राजा कुमारपाल, मंत्री सामन्तसिंह, संग्राम सोनी, आदि अनेकों राजाओं,
570
विशिष्टता
मंत्रियों व श्रेष्ठियों द्वारा यहाँ पर जीर्णोद्धार करवाने के व मन्दिर निर्मित करवाने के उल्लेख मिलते हैं । वि. सं 1222 में राजा कुमारपाल के मंत्री आम्रदेव ने पहाड़ का मार्ग सुगम (पाज) बनवाया था । यह शत्रुंजयगिरि की पाँचवी ट्रंक मानी जाती थीं । प्रथम तीर्थंकर श्री आदीश्वर भगवान के काल से चरम तीर्थंकर श्री महावीर भगवान के काल तक अनेकों चक्रवर्तियों, राजाओं व श्रेष्ठियों द्वारा रैवताचल की यात्रा किये का उल्लेख मिलता है । पूर्व काल में अनेक तीर्थंकरों का यहाँ पदार्पण हुआ है व अनेक मुनिगण यहाँ तपश्चर्या करके मोक्ष सिधारे हैं । कहा जाता है, भावी चौबीसी में बीस तीर्थंकर यहाँ से मोक्ष सिधारेंगे । एक किंवदन्ति के अनुसार श्वे. मन्दिर में स्थित श्री नेमिनाथ भगवान की यह प्रतिमा गई चौबीसी के तीर्थंकर श्री सागर के उपदेश से पाँचवें देवलोक के इन्द्र ने भराई थी, जो भगवान नेमिनाथ के काल तक इन्द्रलोक में थी व बाद में श्रीकृष्ण के गृहमन्दिर में रही । जब द्वारका नगरी भस्म हुई तब श्री अंबिका देवी ने इस प्रतिमा को सुरक्षित रखी व बाद में श्री रत्नाशाह की तपश्चर्या व अनन्य भक्ति से श्री अम्बिका देवी ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रदान की, जिसे पुनः प्रतिष्ठित किया गया ।
वर्तमान चौबीसी के बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ भगवान ने यहीं दीक्षा ग्रहण की थी व केवलज्ञान पाकर वे यहीं से मुक्ति को सिधारे । सती श्री राजुलमतीजी भी तपश्चर्या करती हुई यहीं पर से मोक्ष सिधारी थीं । भगवान नेमिनाथ सती राजिमती के साथ विवाह करने बरात लेकर आये व पशुओं की पुकार सुनकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ । तुरन्त ही उन्होनें राजपाट का वैभव छोड़कर, बिना शादी किये ही वर्षीदान देकर दीक्षा ग्रहण करके इसी गहन जंगल में जाकर कठोर तपश्चर्या की । यह देखकर सती राजुलमतीजी को भी वैराग्य उत्पन्न हुआ व वह भी संसार का सुख त्याग कर इसी गहन जंगल में तपस्या करते हुए मोक्ष को सिधारी ।
दिगम्बर मान्यतानुसार श्री नेमिनाथ भगवान के बाद प्रद्युम्नकुमार, सांबकुमार, अनिरुद्ध व अनेकों मुनिगण यहाँ से मोक्ष सिधारे हैं ।
हिन्दू व मुसलमान भी इस जगह को अपना अपना तीर्थधाम मानते हैं व जगह-जगह उनके भी मन्दिर व