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राजा ने पुत्र की आत्मा के क्षेमार्थ अनेकों जिनमन्दिर बनवाये थे । विक्रम संवत् 610 से 625 तक यहाँ गुहसेन प्रतापी राजा हुए उस समय यहाँ अनेकों जैन मन्दिर थे जिनमें आदीश्वर भगवान का एक विशाल मन्दिर था व आदीश्वर प्रभु की मनोहर प्रतिमा सफेद स्फटिक की थी । यहाँ पर उस समय हस्तलिखित अनेकों ग्रंथ थे, ऐसा श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने उल्लेख किया है । 'विशेषावश्यकभाष्य' ग्रन्थ की रचना यहीं हुई थी ।
विक्रम संवत् 676 के आसपास चीनी यात्री श्री हुएनसांग यहाँ आये । उस समय यह एक विराट नगरी थी व अनेकों श्रावकों के घर थे, जिनमें सैकड़ों करोड़पति श्रावक थे, ऐसा उल्लेख मिलता है । विक्रम
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श्री आदीश्वर भगवान मन्दिर-वल्लभीपुर
संवत् 845 के लगभग गुर्जरपति हम्मीर के समय इस नगरी का पतन हुआ व यहाँ से अनेकों प्राचीन प्रतिमाएँ उस समय देवपतन व श्रीमाल नगर ले जायी गयीं । अभी भी यहाँ, जहाँ-तहाँ, अनेकों प्राचीन भग्नावशेष प्राप्त होते रहते हैं । इस प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ का अंतिम उद्धार तीर्थोद्धारक आचार्य श्री नेमिसूरीश्वरजी के हाथों हुआ ।
विशिष्टता कहा जाता है किसी समय यह शत्रुजय तीर्थ की तलेटी थी । जैन आगमों को प्रथम बार लिपिबद्ध यहीं किया था । शत्रुजय महात्म्य ग्रंथ की रचना आचार्य श्री धनेश्वरसूरिजी द्वारा यहीं की गयी थी । किसी समय यहाँ पर भारत का बड़ा विश्व-विद्यालय था । यहाँ पर धार्मिक उत्थान के अनेकों कार्य हुए । इसलिए यह स्थल धार्मिक दृष्टि से परम पवित्र स्थल माना जाता है ।
अन्य मन्दिर मन्दिर के नीचे भाग में देवर्धि क्षमाश्रमण आदि 500 आचार्यों की प्रतिमाएँ दर्शनीय हैं। इसी परकोटे में विजयनेमिसूरीश्वरजी महाराज का गुरु मन्दिर है । गाँव में एक और पार्श्वनाथ भगवान का मन्दिर है । प्रतिमाजी अति सुन्दर व प्राचीन है ।
कला और सौन्दर्य यहाँ पर देवर्धिगणि क्षमाश्रमण आदि 500 आचार्यों की प्रतिमाएँ कलात्मक ढंग से बनायी गयी है । ऐसा मन्दिर भारत में अन्यत्र नहीं है ।
मार्ग दर्शन 8 यहाँ से नजदीक का रेल्वे स्टेशन
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