________________
मनुष्य ही है समस्त व्यवस्था का सूत्रधार, संचालक एवं संवर्धक
सः रस ह्योवायं लब्ध्वानन्दी भवतिः-तैत्तिरीय उपनिषद्, 2/7 )। सधे हुए मन के साथ मनुष्य व्यवस्था के एक-एक सूत्र को साध लेता है : ___ मनुष्य के मन का स्वभाव मधुमक्खी जैसा होता है। मधुमक्खी को सिर्फ फूलों का रस चाहियेरस के अलावा उसकी अन्य कोई पसन्द नहीं। जिस फूल से उसे रस मिलने की संभावना दिखाई देती है, उसी फूल की ओर वह बढ़ती है और पक्की जांच-परख करने के लिये कुछ समय तक उसके ऊपर मंडराती रहती है। फिर गुनगुनाते हुए वह फूल पर बैठती है और रस खींचती है, लेकिन कितना? उसकी तृप्ति हो जाए और फूल को कोई क्षति न पहुंचे-सिर्फ उतना ही रस वह ग्रहण करती है। (ण य पुष्पं किलामेइ सो य पीणेइ अप्पयं-दशवै० अ० १) उसको कोई लोभ-लालच नहीं होता अतः संचय का सवाल ही नहीं। जो रस वह अपने छत्ते तक ले जाती है वह छोटी-अशक्त मधुमक्खियों के पोषण के लिए ही। मूल स्वभाव की दृष्टि से मनुष्य का मन भी ऐसा ही होता है। उसका जो विकृत रूप स्थान-स्थान पर दिखाई देता है, वह वातावरण का कुप्रभाव है। इस कुप्रभाव को देखते हुए ही मन को साधने की प्रेरणा दी जाती है। मन को साधो यानी उसके मूल स्वभाव को पुनः प्राप्त कर लो। मूल स्वभाव में स्थित हो जाने पर उसे सधा हुआ मन माना जाता है। ___ ऐसे सधे हुए मन के साथ जब मनुष्य किसी भी स्तर की व्यवस्था का सूत्रपात करता है तो उस व्यवस्था में शत-प्रतिशत शुद्धता रहती है। सधे हुए मन का धारक मनुष्य वस्तुतः साधक होता है तथा साधक किसी भी व्यवस्था का सूत्रपात करता है ता वह उसके एक-एक सूत्र को इस कुशलता से संवारता है कि उसमें अशद्धता का तनिक भी अंश न आ सके। व्यवस्था का क्रम ऐसा भी होता है कि साधक के सामने कई बार एक विशेष प्रकार की समस्या आती है। वह समस्या होती है कई विकल्पों में से एक का चुनाव। कभी-कभी कई विकल्पों से लड़ने का प्रयत्न करते-करते वह उनमें और अधिक उलझ भी जाता है। किन्तु कैसा भी संघर्ष हो, एक सधा हुआ मन अन्ततः विकल्पों से सुलझता ही नहीं बल्कि व्यवस्था को नया निखार भी दे देता है।
ग्राम स्तर की व्यवस्था हो अथवा विश्व स्तर की-मनुष्य ही प्रथमतः और अन्ततः उस व्यवस्था का सूत्रधार होता है। व्यवस्था का सूत्रपात अधिकांशतः शुद्ध इस कारण होता है कि मनुष्य मूलतः सत्स्वभावी होता है और उत्तरदायित्वपूर्ण व्यवस्था की स्थापना के समय उसमें एक नया उत्साह उभरता है कि सुचारु व्यवस्था से उसके व्यक्तित्व को भी जनप्रियता मिलेगी। उस क्षण उसके हृदय में अशुभ वृत्तियाँ हो तब भी शुभ वृत्तियाँ अधिक प्रभावशील रहती है। यदि व्यवस्था के शुद्ध प्रारंभ के साथ वातावरण में भी शुद्धता आ जाए तो बाद में मनुष्य की अशुभ वृत्तियाँ फिर असरदार नहीं रहेगी। अशुभ वृत्तियाँ उन्हीं परिस्थितियों में सिर उठाती है, जब व्यवस्था में शिथिलता आने लगती है और जागरूक वातावरण के अभाव में स्वार्थ साधन की गुंजाइश बन जाती है। वृत्तियों का उठाव या जमाव बहुधा वातावरण पर निर्भर करता है। अतः यदि चरित्रनिष्ठा का एक सामाजिक स्तर हो और प्रत्येक वातावरण तो मनुष्य की अशुभ वृत्तियों को अपना असर दिखाने का अवसर ही नहीं आएगा। शुभ वृत्तियाँ प्रभाविक बनी रहेगी और
43