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सुचरित्रम्
दिग्दिगन्त में फैलने लगी और हजारों भक्त आपकी चरण सन्निधि के लिए लालायित रहने लगे। 'तिण्णाणं तारयाणं' के पथ पर गतिशील आचार्य प्रवर ने अनेक मुमुक्षुओं को संयम एवं देशव्रती श्रावकत्व प्रदान किया और इस प्रकार सहज ही चतुर्विध संघ का प्रवर्तन हो गया।
समुद्र में जिस प्रकार दूर से गंगा की धारा अलग-थलग दिखाई देती है उसी प्रकार जिन शासन रूपी समुद्र में आचार्य प्रवर श्री हुकम्मीचन्द जी म.सा. की यह संघ धारा अलग-थलग सी परिलक्षित होने लगी। जो क्रांति की धारा आचार्य प्रवर श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. ने चलाई उसे आचार्य परम्परा ने अनवरत गति दी और आचार्य श्री नानेश के समय इसने प्रखरता प्राप्त की।
परम प्रसन्नता का विषय है कि आचार्य श्री हुक्मीचन्द जी म.सा. की क्रांति को गति देने के लिए आज प्रज्ञानिधि शासन गौरव आचार्य श्री विजयराज जी म.सा. उनके नवम् पट्टधर बनकर उसमें अपनी समिधा अर्पित कर संघ संचालन का कार्य कर रहे हैं। उनके दिशा निर्देशन में आज संघ . अनवरत प्रगति कर रहा है।
श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी शांत क्रांति जैन श्रावक संघ इस संघ के विकास में अपना अहोभाव पूर्वक योगदान दे रहा है। उसने संघ विकास एवं जन कल्याण की अनेक प्रवृत्तियों में साहित्य प्रकाशन की प्रवृत्ति को भी हाथ में लिया है और अल्पावधि में एक विशाल साहित्य भण्डार पाठकों को समर्पित किया है।
संघ ने प्रज्ञानिधि आचार्य प्रवर श्री विजयराज जी म.सा. की विश्व में चरित्र निर्माण की परिकल्पना को साकार करने की दृष्टि से एक वृहद् योजना को अपने हाथ में लिया है। उसी दिशा में आचार्य प्रवर द्वारा लिखित चारित्र निर्माण संबंधी साहित्य को जन-जन तक पहुँचाने का उपक्रम जनता के समक्ष प्रस्तुत किया है।
समग्र चरित्र निर्माण की परिकल्पना, परियोजना और परिस्थिति निर्मित हो इसके लिए संबद्ध मानव चेतना समय-समय पर चिंतनशील रही है। यह निश्चित है चरित्र के अभाव में जीवन का कोई-सा भी पक्ष परिपूर्णता को प्राप्त नहीं करता, हमारे जीवन की सर्वांगीण-सर्वतोमुखी विकास की धारा चारित्र के रूप में ही सदाकाल से प्रवाहित रही है। इस धारा में जब-जब भी अवरोध आए हैं तब-तब इसने अपना मार्ग बदल लिया है। यह धारा कभी सूखी नहीं और न कभी सूखेगी, इसके मार्ग बदल सकते हैं और नए मार्गों के अनुसार यह धारा सदैव प्रवाहमान रही है। ____ हमारा भारत देश ऋषि-मुनियों का देश कहलाता है। ऋषि-मुनियों ने समग्र चरित्र निर्माण के संदर्भ में जितना संजीदगी से मानव चेतना को आह्वान और जागरूक किया है जिसके परिणाम स्वरूप आज तक भारत की जन चेतना के भीतर चारित्र के प्रति आस्था व निष्ठा के भाव विद्यमान हैं। यहाँ चारित्र के प्रति जन-जन का मन हजारों वर्षों से श्रद्धान्वित रहा है, वह सदैव उन्नत चारित्र के प्रति प्रणत है। ज्ञानी होने का सार यही है वह ज्ञान जीवन-आचरण में उतरे, जो ज्ञान जीवन के धरातल को नहीं छूता, वह ज्ञान केवल मस्तिष्कीय क्रीड़ा अथवा वाणी का विलास बनकर रह जाता है। भारतीय