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________________ विश्व रचना, व्यवस्था का परिदृश्य एवं संतुलन की सुई (सुख) जो कर्मफल के सूचक कहे जा सकते हैं। कई प्रकार के सुख-दुःखों का कारण सामूहिक व्यवस्था भी हो सकती है, फिर भी व्यक्ति का अपना खुद का लेखा-जोखा भी होता ही है। इसी कारण अन्यान्य धार्मिक मान्यताएं व्यक्ति के जीवन सुधार पर विशेष बल देती है। वैसे भी इस विश्व के विशाल प्रासाद की नींव की ईंट तो व्यक्ति ही है अतः व्यक्ति की जीवनशैली का प्रभाव समग्र व्यवस्था पर स्वाभाविक रूप से पड़ता ही है। व्यक्ति का आचरण जैसा होगा उसकी प्रतिछाया समाज में अवश्य दिखाई देगी। यही कारण है कि व्यक्ति के चरित्र निर्माण को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। व्यक्ति को ही पहले अपने भीतर बैठे विकारों के राक्षस से लड़ना होगा : चरित्र-निर्माण का अर्थ है कि व्यक्ति ही पहले अपने भीतर बैठे विकारों के राक्षसों से लड़े और उस पर विजय प्राप्त करे। जब तक वह यह विजय प्राप्त नहीं करता, उसका यह गुमान व्यर्थ है कि उसने महासागरों को, महाशिखरों को अथवा महाग्रहों को जीत लिया है। अपने विकारों को नष्ट करना तथा अपने आपको जीतना ही सच्ची सार्थकता है। प्रत्येक युग में वे ही महाविजेता माने गये हैं, जिन्होंने अपने आंतरिक शत्रुओं को समाप्त किया और अरिहन्त बने । वर्तमान परिस्थितियों में चरित्रनिर्माण की अनिवार्य आवश्यकता है और जब व्यक्ति इस दिशा में आगे बढ़ेगा तभी समाज में भी वांछनीय परिवर्तन की आशा की जा सकती है। इसका समाधान यही कि व्यक्ति अपनी वैचारिकता को बदले और उसके आधार पर अपने आचरण में बदलाव लावे । यह तभी संभव है जब वह अपने भीतर झांके, अपने गुण-दोषों की परख करे और मजबूती के साथ विकारों और दोषों को दूर करे। व्यक्ति अपने कार्यों का कर्त्ता तो होता ही है, लेकिन उसे अपने कार्यों दृष्टा भी बनना पड़ेगा, ताकि वह अपने चरित्र निर्माण के पथ से भटक न सके। यह विकारों का राक्षस कौन है और कैसा है - यह जरूर समझ लिया जाना चाहिये। सभी प्रकार के विकारों को एक शब्द में कहें तो वह है स्वार्थ और भीतर के राक्षस को स्वार्थ का राक्षस मान सकते हैं। व्यक्ति अपने स्वार्थों में अंधा बनकर सभी प्रकार के अनाचार और अत्याचार करता है। स्वार्थ ही अनेकानेक इच्छाओं तथा लालसाओं को जन्म देता है जिनके पीछे भागते-भागते व्यक्ति अपना अमूल्य मानव जीवन निरर्थक ही नष्ट कर देता है। इच्छाएं आकाश के समान अनन्त होती हैं (इच्छा हु आगाससमा अणंतिया महावीर उत्तरा. अ. ०९) और एक इच्छा की पूर्ति करो तो नई दस इच्छाएं जाग जाती हैं। एक क्या अनेक जीवन भी इस इच्छापूर्ति में लगा दिए जाए तब भी सभी इच्छाओं की पूर्ति संभव नहीं । अतः स्वार्थ और लालसा मनुष्य की सबसे घातक कमजोरियां हैं। इन पर विजय चरित्रनिर्माण एवं चरित्रगठन से ही प्राप्त की जा सकती है। विश्व एवं व्यक्ति के बीच जितना अधिक सामंजस्य, व्यवस्था उतनी ही सुचारु : समय बताने वाली घड़ी को जानते सभी हैं, लेकिन उसकी खूबी की तरफ कम लोगों की ही नजर गई होगी। घड़ी की भीतरी मशीनरी में छोटे-छोटे कई दरांतेदार पहिये होते हैं, जो एक दूसरे 33
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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