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________________ चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य ध्यान से प्रेम जन्मता है और प्रेम ध्यान की ओर ले जाता है। प्रेम जो चेतनामय एवं आत्ममय होता है, वही हार्दिक होता है। व्यक्ति जितना ध्यान में डूबता जाता है, वह अपने को उतना ही प्रेमपूर्ण पाता है। उसके प्रेम में विकार या वासना की गंध नहीं होती। वह प्रेम तो ध्यानस्थ होता है। यों हम हृदय में उतरेंगे तो सूना लगेगा, लेकिन हृदय में पहुंच कर बैठेंगे तो ऐसी आन्तरिक हिलोरे उठेगी जो चित्त को प्रफुल्लित बना देगी। ऐसे प्रेम को ध्यान से जन्मा प्रेम कहेंगे। ऐसा ही प्रेम हमें ध्यान की गहराई में उतारेगा और जीवन मैत्री तथा विश्वमैत्री का सुख देगा। प्रेम वह होता है जो विश्व तक फैले और शाश्वत की झलक दे। प्रेम वह है जिसमें पर का निमित्त गौण और स्वयं की पुलक मुख्य हो। इसका अर्थ है कि ध्यानी और प्रेम स्वयं प्रेम हो जाता है। यह ध्यानलीनता का उत्कृष्ट रूप है। जो ध्यानलीनता होती है, वस्तुतः वही आत्मलीनता है। मनुष्य का अन्तर्जजगत् ही चेतना का वह धरातल है जिससे उसका जीवन और जगत् संचालित एवं प्रकाशित होता है। जो अपने अन्तर्जगत् का स्वामी हो जाता है, उसका संसार उतना ही प्रेममय, करुणामय, निस्पृह एवं आनन्दमय बन जाता है। जिसके वश में अन्तर्जगत् की सम्पदा होती है, समझें कि संसार का वह सबसे समृद्ध और सुख-शांति का स्वामी है। अन्तर्जगत् का अपना रस होता है, अपना स्वाद होता है और अपना ही आनन्द होता है। आत्म बोध, आत्म-आरोग्य तथा आत्म पुरुषार्थ से यह आनन्दमय अवस्था पैदा होती है, उसे ही आत्मलीनता कहना चाहिए। आत्मलीनता से ही अन्तर्जगत् की रचना होती है। यह होता है हमारा अपना निवास, हमारा अपना धरातल, हमारा अपना स्वर्ग और हमारा अपना मुक्ति का साम्राज्य। ध्यान रखें कि ध्यान की ओर-चरित्र निर्माण की ओर हम अपना चरण बढ़ाकर इसी अन्तर्जगत् की ओर याने अपने घर की ओर चलने की तैयारी कर रहे हैं। अपने घर में रहने और जीने से बढ़कर सुख कौनसा हो सकता है? यह अन्तर्जगत् ही अपना घर है-एक ऐसा घर जो अतीत के गलियारों से गुजर कर भी, भविष्य के इन्द्रधनुष संजो कर भी समय के प्रत्येक शिलालेख से ऊपर उठा हुआ है। आत्म पुरुषार्थ से रचित होकर, आत्मलीनता से सज्जित होकर और चरित्रलीनता से आदर्शित होकर जिस अन्तर्जगत् का निर्माण होता है, वह समयातीत है। __ समय मनुष्य में परिवर्तन लाता है, किन्तु सारे परिवर्तनों का प्रभाव पर्यायों पर ही पड़ता है। जीवन तो एक धारा है-चेतना की धारा अर्थात् चित्-प्रवाह। यह जीवन तत्त्व व्यापक होता है। यह तत्त्व ऐसा नहीं जो जन्म से शुरू हुआ और मरण पर समाप्त। जीवन तो स्वयं ही जीवितता काजीवन्तता का वाचक है, जिसका जीवन्त प्रवाह कभी समाप्त नहीं होता। इसी प्रवाह को पकड़ना है, क्योंकि हम इससे दूर छिटके हुए हैं, आसक्ति और मोह में फंसे हुए हैं। ध्यान और चरित्र के माध्यम से हम चेतना तक पहुँचकर वास्तव में अपने आप तक ही पहुंच रहे हैं और अपने घर की ही खोज कर रहे हैं। जीवन तो संगीतपूर्ण है, आनन्दपूर्ण है और जिसने इस जीवन को नहीं देखा, उसका सगीत और आनन्द अधूरा ही है। ___ हम सब तो चेतना के वह प्रवाह है, जैसे हिमालय से नदियाँ निकलती हैं, पानी बहता है, धरती को सरसब्ज करता है, प्राणियों की प्यास बुझाता है और गंगा का पानी गंगासागर में समा जाता है। 579
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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