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सुचरित्रम्
कि सबके चरित्र का उस सीमा तक विकास किया जाए, जहाँ वे अपने आत्म विश्वास को जगा सके
और समग्र अस्तित्त्व से अपने आप को जोड़ सके। ध्यान और चरित्र साधना से यह दुष्कर कार्य सिद्ध किया जा सकता है कि प्रत्येक मानव प्राणी-मात्र के प्रति संवेदनशील एवं मानवीय बने। ____ यह संभव हो सकता इस मंत्र से कि प्रत्येक व्यक्ति ध्यान लगावे, हर समय चिंतन करे इस मंत्र का। यह मंत्र है-'मैं इस संसार की एक इकाई हूँ, सारे संसार से मेरा संबंध जुड़ा हुआ है, इस अर्थ में सारा संसार मेरा अपना है। इस मंत्र का मात्र जाप ही नहीं करना है बल्कि इस स्थिति के लिए अपना विश्वास ढल जाना चाहिए। विचार बन जाना चाहिए कि परिवार, समाज या जाति ही हम
और हमारा नहीं है, वरन् सारा संसार हमारा है। जल, थल, नभ में कोई भी स्थान ऐसा नहीं है, कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है, जिससे अस्तित्त्व की दृष्टि से हमारा संबंध न हो। सारी वसुधा-पृथ्वी हमारा परिवार है। मनुष्य ही क्यों, चींटी और सारे दृश्य-अदृश्य जीव हमारी संवेदना व करुणा के पात्र हैं।. पेड-पौधे, फल, फल आदि सारे एकेन्द्रिय जीव भी हमारे प्रेम की अपेक्षा रखते हैं। कारण स्पष्ट है। हम सभी अस्तित्त्व की दृष्टि से एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। यह संसार वस्तुतः पारस्परिकता तथा
अन्योन्याश्रितता पर टिका हुआ है। ___ हम ध्यान में लगें, चरित्र में जिएं और अपने अन्तःकरण में सारे संसार को ले आवें। वहाँ सबके लिए हितावह प्रेम ही लहरें उठावें। अपने मन की शांति और पवित्रता की वीणा से दसों दिशाओं को झंकृत होने दें। यह उद्घोषणा करते रहें कि हम संसार के हैं और सारा संसार हमारा है। हमारी ओर से सबके प्रति प्रेम, हित एवं सम्मान की भावना है। हमारे लिए कोई अनजान नहीं है। चारित्रिक दृष्टि से हम सभी एक-दूसरे से सम्बद्ध है-समूचे संसार के साथ जुड़े हुए हैं।
चरित्र सम्पन्नता और ध्यान साधना से हमारी संवेदनशीलता का इतना विकास हो सकता है कि हम स्व को संसार से अभिन्न मान लें। हमारा प्रेम, संवेदन, सहकार असीम बन जाए। हमारा जो पथ होगा, हमारा जो जीवन होगा, वह स्वयं के लिए और सबके लिए स्वतः समाधान मूलक होगा। हमारी चरित्रशीलता से, हमारी ओजस्विता तथा तेजस्विता से, हमारी स्नेहिलता व मुस्कुराहट से, हमारी उच्च मानसिक तथा आत्मिक अवस्था से संसार प्रभावित हुए बिना नहीं रहेगा, काश, हम संगठित प्रयास करें।
ध्यानलीनता है वही आत्मलीनता है, आत्मलीनता ही चरित्रलीनता है!
प्रेम मानव जीवन और संसार का आधार है, क्योंकि सूपर्ण वायुमंडल में जो घुला मिला भाव है, वह प्रेम भाव ही है। प्रेम की बयार ही शीतल और सुखदायिनी होती है। प्रेम भाषा मनुष्य ही नहीं, पशु पक्षी तक समझते हैं और प्रेम में अवश हो जाते हैं। प्रेम की तरल दृष्टि आंखों ही आंखों प्रवेश करती रहती है और हृदय के अणु-अणु में समा जाती है। हृदय में समाविष्ट इस प्रेम का जन्म जानते हैं, किस शक्ति से होता है? यह प्रेम ध्यान से जन्म लेता है। प्रेम वायु है तो ध्यान आकाश। ध्यान की व्यापकता से प्रेम की विराटता अभिव्यक्त होती है। ध्यान की गहराई में जन्मा प्रेम ही जीवन का गौरव और चरित्रशीलता का प्रतीक बनता है। ध्यान की गहराई से जन्मा प्रेम ही जीवन की सुवास है, चरित्रशीलता का प्रतीक है।
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