SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 691
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य संशोधन का हमारा यत्न किस रूप में चल रहा है? आशय यह है कि हमारा चरित्र कैसा है और उसे कैसा बनाना चाहिए? हम अपने जीवन मूल्यों का संबंध केवल परलोक से ही नहीं जोड़ें, बल्कि उन्हें वर्तमान-सापेक्ष बनावें। मरने के बाद क्या मिलेगा, हमारा क्या होगा, कहाँ जाएंगे-ऐसा सोचने की बजाय यह देखें कि हम आज क्या हैं, क्यों हैं, हमारे चित्त की शाति तथा आत्मा की निर्मलता के लिए क्या किया जा सकता है-उस पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। हम ऊँची-ऊँची बातें तो करते फिरते हैं. लेकिन यह नहीं देखते कि हमारा हृदय कितना संवेदनहीन, स्वार्थी और निर्दयी बनता जा रहा है। भौतिकता के अम्बार खड़े कर दें-उससे जीवन का कुछ बनने वाला नहीं है। बनेगा तो इससे कि चरित्रशीलता बढ़े, जीवन की गुणवत्ता विकसित हो और मानवता मस्तक पर विराजे। - मानवता, चरित्र एवं जीवन के उत्थान के लिए विज्ञान, कला और ध्यान तीनों को आत्मसात् करना होगा-विज्ञान जीवन और जगत् के पदार्थगत ज्ञान के लिए, कला जीवन को सृजनात्मक आयाम देने के लिए और ध्यान जीवन की आंतरिक शुद्धि तथा आनंद के लिए है। वास्तव में जीवन का ज्ञान तथा चेतना का विज्ञान ही ध्यान है। मनुष्य की शक्तियों को जगाने, उनको स्वाभाविक गति देने तथा स्व को पर में विगलित कर देने का वरदान ध्यान साधना से ही प्रकट होता है। ध्यान स्पष्टतः स्वयं को समझने और अपनी चेतना को तराशने का संकल्पित उपक्रम है। ध्यान से मनुष्य अपने ही भीतर उतरता है, स्वयं की शोध करता है और अपनी आत्मा को परमात्म-शक्ति के साथ जोड़ता है। जहाँ तक ध्यान की विधियों का संबंध है, अनेक विधियाँ निर्देशित, मान्य एवं प्रचलित हैं और यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी विधियाँ अच्छी हैं। ध्यान साधक को प्रयोगधर्मी होना चाहिए और निष्कर्ष निकालना चाहिए कि अपने लिए कौनसी विधि चित्त को परिष्कृत तथा चेतना को परिपूर्ण बनाने के लक्ष्य के अनुकूल है। __ भगवान् महावीर का यह क्रांतिकारी संदेश है कि ध्यान सर्वथा शुभ नहीं, अशुभ भी होता है। चार ध्यान बताए हैं, जिनमें दो ध्यान अशभ हैं और दो ध्यान शभ हैं। इस विवेचन के साथ यह निर्देश दिया गया है कि शुभ ध्यानों में निरत बनें तथा अशुभ ध्यानों से सतर्क रहें । आर्त और रौद्र ध्यान तमस रूप हैं तथा धर्म व शुक्ल ध्यान सात्विक रूप हैं। ऊर्ध्वमुखी और सकारात्मक वृत्तियों-प्रवृत्तियों में एकनिष्ट होना शुभ रूप है। इसके विपरीत मानसिक हिंसा, तनाव, चिंता, घुटन से घिरे रहना आर्त और रौद्र ध्यान का सेवन है, जो जीवन को अध:पतन की ओर ले जाता है, चरित्र को हीन बनाता है। ध्यान बहुत सहज है-इसको न कठिन मानें, न बनावें। ध्यान को बहुत ही सहजता से लें। ध्यान इतना ही है कि स्वयं को स्वयं में उतरना है, स्वयं का सूक्ष्म अवलोकन करना है और स्वयं के शुद्ध रूप याने परमात्म स्वरूप का आनन्दरस पीना है। खुद की मस्ती में मस्त रहना है और खुदा बन जाना है। एक ध्यानी ने अपनी ध्यान विधि का उल्लेख करते हुए उसे पांच चरणों में विभाजित की है 1. पहला चरण- श्वास दर्शन तथा एकाग्र योग - इसमें निर्लिप्तता, तन्मयता, स्व केन्द्रितता तथा श्वास सजगता की आवश्यकता होती है। 2. दूसरा चरण - चित्त दर्शन तथा शांति योग - स्वयं को भृकुटि मध्य स्थिर करें, अग्र मस्तिष्क में केन्द्रित करें और मन को मौन, तन्मय व विलीन हो जाने दें। 573
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy