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चरित्र के शिखर पर पहुंचने का रहस्य
साथ ही जो भी बोला जाए, वह सत्य हो और हितकारी तथा प्रियकारी भी। ____3. आहार शुद्धि - आहार का तन पर ही नहीं, मन पर भी पूरा प्रभाव पड़ता है और जितने कुव्यसन हैं, वे दूषित आहार के ही कुफल होते हैं। विकृत आहार जीवन को सभी प्रकार से विकृत बनाकर पतित कर देता है। अतः आहार शुद्धि की ओर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। चौके से चरित्र का अनुमान लगाया जाता है, वह आहार के आधार पर ही। तामसिक आहार सर्वथा त्यागें, राजसी आहार कम करें और सात्विक आहार पूर्णतया अपनावें, ताकि शुद्धि का क्रम आगे बढ़ता रह सके।
4. प्राण शद्धि - प्राण दस होते हैं और दसों प्राण ऊर्जावान तभी बने रह सकते हैं, जब उन्हें विशुद्ध वातावरण प्राप्त हो। प्राण शुद्धि के लिए तपाराधना करें, प्राणायाम का अभ्यास रखें तथा विभिन्न यौगिक क्रियाओं, आसनों तथा ध्वनियों के माध्यम से प्राण शुद्धि का कार्य करते रहें। ____5. चित्त शुद्धि - मन की या चित्त की चंचलता को आप समझते हैं और उसकी शुद्धि व स्थिरता के अभिलाषी भी आप हैं। आत्म शुद्धि के साध्य तक सफलतापूर्वक पहुँचने के लिए चित्त शुद्धि के लिए अनिवार्य है-स्थिरता का अभ्यास, विभावों तथा विकारों को दूर करने की चेष्टा, सद्गुणों को ग्रहण करने की वृत्ति तथा सबसे ऊपर ध्यान साधना का अनुष्ठान ताकि आत्म-शुद्धिकरण की प्रक्रिया प्रगतिशील बने, सुख-समाधि मिले और शुद्ध चैतन्य की अनुभूति आनन्ददायक लगे।
यह ध्यान एवं चिंतन का विषय है कि आनन्द हमारा स्वभाव है, शांति कहीं बाहर नहीं, हमारी ही आंतरिकता में बसी हुई है एवं ज्ञान हम स्वयं हैं-ज्ञान आत्मा है और आत्मा ज्ञान है। ऐसा होते हुए भी हम दुःखी क्यों हैं, अशांति से घिरे हुए क्यों हैं तथा अज्ञान के अंधेरे में क्यों भटक रहे हैं? चिंतन की तनिक सी गहराई में भी उतरेंगे तो अनुभव हो जाएगा कि हमारी इस दुरावस्था का कारण हम स्वयं हैं, क्योंकि हम स्वयं को ही नहीं पहचानते। स्वयं से स्वयं की जो दूरी बनी हुई है वही हमारे सभी कष्टों की कारण भूत है। इसे मिटाना ही ध्यान साधना की सफलता है।
चरित्र के विकास एवं जीवन के उत्थान क्रम में ध्यान साधना की जो सुदृढ़ भूमिका है, उसके फलवती होने पर शक्तियों का रूपांतरण होता है। मन और इंद्रियों की जो शक्ति वर्तमान में विपरीत, वैभाविक तथा वैकारिक दिशा में खर्च हो रही है, वह दिशा बदल देती है-विमार्ग से हट कर सन्मार्ग पर आ जाती है। वे शक्तियाँ तब आत्म-स्वरूप के शुद्धिकरण में नियोजित हो जाती हैं। ध्यान साधक तत्त्ववेत्ता बनता है और क्रोध, मान, लोभ, राग, द्वेष मोह, गर्भ, जन्म-मृत्यु, गत्यानुगतिकता एवं दुःख
आदि को सम्यक् प्रकार से देखने में सफलता प्राप्त कर लेता है-'जे कोहदंसी, से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी....'। वह राग द्वेष से मुक्त रहकर कम शरीर को क्षीण करता है।
ध्यान साधना से मनुष्य को अमित आत्मविश्वास तथा अखूट ऊर्जा की प्राप्ति होती है कि मनमानस सजग व सक्रिय रहे तथा जीवन का व्यावहारिक पक्ष आध्यात्मिक पक्ष के साथ जुड़ा रहे। मानव चरित्र का जब इस रूप में निर्माण एवं विकास होता है तो उसकी शक्तियाँ सृजनात्मक, सकारात्मक तथा रचनात्मक स्वरूप ग्रहण कर लेती है। वस्तुतः जीवन का उत्थान इसी में है कि व्यक्ति शुभ तथा शुद्ध वृत्ति-प्रवृत्ति का धारक हो, अपने ही नहीं सबकी हित चिंता में लगे रहे, बल्कि स्व से भी ऊपर उठकर परार्थ में विसर्जित हो जावे।
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