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युवाओं, उठो और इस विजय अभियान को सबल नेतृत्व दो!
गिरते हुए को एक और धक्का लगाएगा कि पतित कभी उठ ही नहीं पावे। पतित को पावन बनाने का दायित्व तो विवेकवान भी नहीं निबाह पाता है जब वह चरित्रवान भी बन जाए।
चरित्र और विवेक जब एक रूप हो जाते हैं तब तो प्राप्त शक्ति का कहना ही क्या? उसका सदुपयोग ही नहीं होगा, बल्कि उस शक्ति का ऐसा अपूर्व विकास होगा कि वह व्यक्ति को न केवल शुभता का संयोग ही मिलाएगी, बल्कि उसे उन संयोगों के संरक्षण का सामर्थ्य भी प्रदान करेगी। संयोग किसे कहें? संयोग शब्द योग से बना है और योग की एक व्याख्या यह भी है कि अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति कराने वाला (अप्राप्तस्य प्राप्तिर्योगः)। जिसे पाने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किए हों, अनेक आकांक्षाएं मन में उभरी हों, उस वस्तु का मिल जाना योग है अथवा कभी आकस्मिक रूप से बिना प्रयत्न के अनचाहे ही किसी वस्तु का मिल जाना भी योग ही है। ऐसा योग प्रत्येक प्राणी को मिलता रहता है। जो प्राणी जहां पर है, उसी गति-स्थिति के अनुसार उसे अनुकूल या प्रतिकूल संयोग मिलते रहते हैं। लेकिन कोरे संयोग का कोई अर्थ नहीं, जो अर्थ है वह सुयोग का है। इस सुयोग को संरक्षण की आवश्यकता होती है, क्योंकि सुयोग के रहते कठिन से कठिन कार्य भी उतने कठिन नहीं रहते। सुयोग से प्राप्त गुण या वस्तु के यथोचित उपयोग का अवसर बना रहता है। संयोग से सुयोग श्रेष्ठ है किन्तु इस सुयोग से भी अधिक श्रेष्ठ है उसका संरक्षण तथा उसका सर्वजन हितकारी उपयोग। . सर्वजन हितकारिता की प्रेरणा उन्नत चरित्र से मिलती है क्योंकि विवेक को दिशा निर्देश देती है चरित्रशीलता। इस कारण चरित्रशीलता की शक्ति सर्वश्रेष्ठ होती है। चरित्र निर्माण अभियान के इससे जुड़े विशेष महत्त्व को समझा जाना चाहिए जिसके माध्यम से विवेक एवं शक्ति के सम्मिश्रण को सर्वजन हित की दिशा में कार्यक्षम बनने का प्रोत्साहन मिलता है। अभियान के सहभागियों को यह सत्य हृदय में उतार लेना चाहिए कि हमें सिर्फ जो कुछ शक्ति के रूप में प्राप्त हुआ है, उस पर इतराना नहीं चाहिए-यह पहली बात। दूसरी बात यह कि उस प्राप्ति के साथ विवेक और चरित्र का कवच जोड़ना चाहिए जिससे प्राप्त शक्ति का सदुपयोग हो सके तथा सदुपयोग होता रहे। तीसरी बात यह कि संयोग के साथ सदुपयोग के होते रहने से जो सुयोग मिले, उसकी रक्षा की जाए तथा सदुपयोग के अवसर को जीवन्त बनाए रखा जाए। चरित्र निर्माण एवं विकास का यही लक्ष्य बने तो न यौवन राह से भटकेगा और न ही उसका वेग किसी का अहित कर सकेगा। एक आदर्श युवक या युवती में किन चारित्रिक गुणों की अपेक्षा होती है? . चारित्रिक सद्गुणों के धारक युवक एवं युवतियां ही अपनी विवेकशीलता तथा कार्यक्षमता से
आदर्शों की दिशा में प्रयाण करते हैं तथा उस चरम आदर्श को आत्मसात् भी करते हैं। युवानों के लिए वह आदर्श कैसा हो सकता है, उसकी एक कल्पना स्वामी विवेकानन्द के इस गीत से मुखरित हो रही है
वह जो तुम में है
और तुम से परे भी जो सबके हाथों में बैठ कर काम करता है,
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