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युवाओं, उठो और इस विजय अभियान को सबल नेतृत्व दो!
भीतर ही भीतर ललकारेगा और उत्तर देगा नहीं, सिर्फ जीने के लिए ही नहीं। जीने की सार्थकता जीने से भी ऊपर है और वह सार्थकता है - यौवन को चरित्र निर्माण की रचनात्मकता में पूरी तरह से नियोजित कर देना । कोई जी रहा है और वह पूछे कि क्या जीना पाप है? जीने को कोई पाप नहीं कहेगा। धर्म भी कहेगा तू मत मर बल्कि किसी को मार भी मत । सबकी जिजीविषा होती है किन्तु युवक की आकांक्षा इस जिजीविषा से ऊपर उठने की होती है और वह होती है उत्सर्ग की आकांक्षा । जीना सामान्य बात है किन्तु जीवन को किसी शुभ साध्य के लिए न्यौछावर कर देना उत्सर्ग है और ऐसा त्याग यौवन के लिए ही सहज होता है। तदनुसार युवक-युवतियों की चार भावनाएं उनके जीवन में समविष्ट हो जानी चाहिए, ये चार भावनाएं हैं
1. अहिंसा की भावना : संसार के समस्त प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। जीने की कामना प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान है। यों जीवन का ऐसा स्वरूप है तथा इस स्वरूप की रक्षा धर्म है। अहिंसा का स्वर जीवित रहने की भावना ही फूटा है। प्रत्येक प्राणी के प्रति हृदय रहना अहिंसा का मूल । परस्पर सहृदयता, प्रेम, करुणा, सहयोग- ये सब मनुष्य की जीवित रहने की भावना के ही प्रतीक हैं तथा उसी भावना के विकास का रूप हैं।
2. सुख की भावना : सुख की भावना है सुख पाने के लिए। इससे ही प्रेरित होकर प्रत्येक प्राणी प्रयत्नशील रहता है। निष्कर्ष यह है कि सुख आत्मा का स्वरूप है । भगवान् के स्वरूप का वर्णन करते हुए बताया गया है कि वह आनन्दमय है और सच्चिदानंद स्वरूप है। उच्चतम आनंद की कल्पना इसके साथ जुड़ गई है, किन्तु आनन्द के सही स्वरूप को पहचानने की समस्या रहती है । अज्ञानवश जिसे सुख समझ लिया और उसके पीछे भाग दौड़ के बाद अनुभव हुआ कि यह तो मृग मरीचिका है तब सारा प्रयास निरर्थक हो जाता है। सुख का स्वर भीतर से उठना चाहिए- स्वयं सुखी हो, अन्य सबको भी सुखी बनाने की चेष्टा करें। यह जीवन सुख के लिए है- सुखी और प्रसन्न रहने के लिए है, हंसने और हंसाने के लिए है, रोने- चीखने के लिए नहीं । परन्तु सोचने की बात है कि जो स्वयं के जीवन को ही भार के रूप में ढो रहा है, वह विश्व को जीने का क्या सम्बल देगा? इसलिए स्वयं जीएं और दूसरों को जीने दें, स्वयं सुखी रहे और दूसरों को सुखी रहने दें तथा दुःखी हों उन्हें सुखी बनावें। किसी का जीवन या सुख कभी भी लूटने का दुष्प्रयास न करें ।
3. स्वतंत्रता की भावना : सबकी आत्मा स्वतंत्रता चाहती है, किसी को भी बन्धन पसंद नहीं। विश्व में बन्धन और मुक्ति का संघर्ष सिर्फ साधकों के क्षेत्र में ही नहीं होता, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसकी गूंज सुनाई देती है। कहीं भी कोई गुलाम नहीं रहना चाहता। हर कोई आजाद रहना पसंद करता है। एक देश दूसरे देश की गुलामी और अधिकार में नहीं रहना चाहता, एक जाति दूसरी जाति के दबाव में रहना पसंद नहीं करती। वास्तविक स्थिति यह है कि आत्मा में स्वतंत्र रहने की वृत्ति बड़ी प्रबल है । प्रेम के वश कोई भी किसी का हो सकता है, किन्तु गुलाम बन कर किसी के बंधन में रहने को कोई तैयार नहीं। क्योंकि स्वतंत्रता आत्मा का स्वभाव है, स्वरूप है और उसका अधिकार है। स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है- यह नारा राजनीतिक क्षेत्र में लोकमान्य तिलक ने भले ही लगाया हो पर यह नारा भारतीय संस्कृति का बुनियादी नारा है।
4. जिज्ञासा की भावना : ज्ञान पाने की इच्छा ही जिज्ञासा है तथा जीवन, सुख और स्वतंत्रता की
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