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सुचरित्रम्
अब हर हालत में सावधान हो जाना चाहिए, क्योंकि विनष्ट किया गया अमूल्य यौवन फिर से अभी भी पाया नहीं जा सकेगा। यौवन ही हतप्रभ रहेगा तो उसके प्रयोग का तो प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु अभी भी समय है कि हतप्रभ यौवन को पुनः प्रभावान बना लें और उसके सत्प्रयोग का संकल्प ले लें। यौवन कहता है-मुझे गिरा के भी अगर तुम संभल सको तो चलो! :
युवा शक्ति के त्याग और बलिदान की अति का दिग्दर्शन कराती हुई यह गजल मननीय भी है तो अनुकरणीय भी
सफर में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो सभी हैं भीड़ में, तुम भी
निकल सको तो चलो यहां किसी को कोई रास्ता नहीं देता मुझे गिराके भी अगर तुम
संभल सको तो चलो कहीं नहीं कोई सूरज,
धुआं धुआं है फिजां स्तुद अपने आप से बाहर
निकल सको तो चलो यही है जिन्दगी-चलना व कामयाब होना
इन्हीं मकसदों से तुम भी
मचल सको तो चलो सभी है भीड़ में, तुम भी
निकल सको तो चलो। युवा शक्ति को झिंझोड़ता-प्रेरणा देता हुआ प्रसिद्ध साहित्यकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का यह उद्बोधन भी चिन्तन योग्य है-"1. यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में आग लगी हो तो क्या तुम पास वाले दूसरे कमरे में सो सकते हो? 2. यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाश पड़ी हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में गाना गा सकते हो? 3. यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में लाशें सड़ रही हो तो क्या तुम दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो? 4. और यदि हां, तो तुम्हें मुझे कुछ भी नहीं कहना।"
भारतीय दर्शन की भी अन्तिम परिणति यही है कि युवक अपने मूल स्वरूप को समझे और उसकी सच्ची साधना भी यही है। त्याग और बलिदान वाले अपने मूल स्वरूप को पहिचान लिया तो समझो कि यौवन के वेग और उसके सत्प्रयोग को भी पहचान लेने में कोई कठिनाई नहीं रहेगी। तब यौवन स्वयं पूछेगा कि क्या तुम्हारी साधना सिर्फ जीने के लिए है? तब युवक ही अपने यौवन को
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