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________________ जीवन निरन्तर चलते रहने का नाम एकदम अकेले चलना हो तो कइयों के लिए यह कठिन समस्या बन सकती है। इसी समस्या का उत्तर है तीसरे चरण में। महाकवि रवीन्द्र नाथ टैगोर का प्रमुख आह्वान रहा है-एकला चलो रे, एकला चलो। साथ न हो तो साहस को बढाओ, विशेष स्फूर्ति जगाओ और तन-मन को तैयार कर दो अकेले ही चलने के लिए। न चलना मृत्यु है और चलना जीवन किन्तु अकेले ही चलना और मंजिल को पा लेना महा जीवन कहलाता है। कौरव पांडवों की अन्तिम लड़ाई कृष्ण के निर्देशन में लड़ी गई। अर्जुन अकेले चलने यानी अकेले लड़ने से घबरा रहे थे-कैसे वार करूं अपनों पर और इन्कार हो गए चलने से-लड़ाई करने से। तब कृष्ण ने अर्जुन को जगाया, सावधान बनाया और उन्हें अकेले चलते रहने को तैयार कर दिया। कष्ण पथ प्रदर्शक बने और अर्जन एकाकी योद्धा बने। इस परिप्रेक्ष्य में व्यास ने अपना निष्कर्ष निकाला-जहां योगेश्वर कृष्ण युद्ध का नेतृत्व करेंगे, अर्जुन अपना धनुष उठा कर लड़ेंगे, वहां विजय के अतिरिक्त क्या हो सकता है? वहां विजय है, अभ्युदय है और जीवन की ऊँचाई है-यह मेरा निश्चित मत है (यत्र योगेश्वरः कृष्णो, यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीविजयो भूतिधुंवा नीतिर्ममिर्मम)। वास्तव में यह मत सही है। महाभारत में कृष्ण निर्देशक थे और अर्जुन एकाकी योद्धा, उसी प्रकार हमारे अन्तःकरण में भी कृष्ण और अर्जुन विराजमान है। कृष्ण ज्ञानयोग के प्रतीक हैं और अर्जुन कर्मयोग के प्रतीक। कर्मयोग को नेतृत्व मिलना चाहिए, फिर वह अकेला ही तीव्र गति से कर्म पथ पर चल पड़ता है। ज्ञान और कर्म का समन्वय हो जाता है। चलना मानव जीवन का मुख्य चरित्र बन जाता है। जीवन के महाभारत में भी यदि मानव इस मूलमंत्र को अपना कर लड़े तो उसकी विजय होना सुनिश्चित है। अपनी चरित्र सम्पन्नता तक चल कर पहुंचने वाला मानव अन्ततोगत्वा विजयश्री का अवश्यमेव वरण करता है। चलने का अर्थ है-सर्वोच्च सत्य की अहिंसक शोध में लगे रहो : __चलने का सच्चा अर्थ सबसे आगे बढ़ कर महावीर ने खोजा था, जिनके सिद्धान्तों को 'निग्रंथ धर्म' का नाम भी दिया गया है। निग्रंथ-एक जीवन पद्धति का नाम है जिसका सत्य विश्वात्मकता में समाविष्ट था। ये दो मूलभूत सिद्धान्त थे-व्यक्तिगत समता एवं सामाजिक न्याय। पहले सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को कर्ता एवं ज्ञाता होने के साथ-साथ द्रष्टा बनना चाहिए। वह अपने सारे कार्यों को अपनी ही आंखों से देखें, अपने मन में उन्हें तोलें और अपने अन्तःकरण से उनकी शुभाशुभता पर अपना निर्णय ले। इस निर्णय शक्ति के साथ विकसित होगा-आत्मसंयम तथा सामाजिक अनुशासन । साथ ही सहनशीलता एवं सहकारिता की गुण-सम्पन्नता भी बढ़ेगी। - चलने का अर्थ का साकार रूप यही है कि मनुष्य ही सम्पूर्ण प्रगति का आधार है (Man is the root of progress) और उसे अवतारवाद, दैववाद या नियतिवाद जैसी किसी बैशाखी की जरूरत नहीं पड़ती। वह अपने ही पांवों से चलकर मुक्ति की मंजिल तक पहुंच जाता है। उसे विश्वास होना चाहिए अपने ही पांवों की शक्ति पर और अपनी ही चाल के वेग पर। मजबूती के साथ एक-एक डग भरते हुए वह पूर्ण चरित्र सम्पन्नता की उपलब्धि कर सकता है और मुक्ति की मंजिल तक पहुंच सकता है। यह स्वयं के चलने की अपनी आत्मशक्ति की विजय होती है। महावीर ने जीवन की पवित्रता तथा आत्मा की विजय पर सर्वाधिक बल दिया। वे जीवन को ही एक यज्ञ मानते थे और 543
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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