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जीवन निरन्तर चलते रहने का नाम
उसी ताकत के मुताबिक चाल की मजबूती या कमजोरी दिखाई देती है। चाल में विस्तृत सम्पर्क, विविध कार्य तथा अजीब अनुभव के बाद नए-नए गुणों का समावेश होता रहता है। एक उदाहरण लें। अन्य वाहन तो ठीक है, लेकिन किसी की साइकिल चलाने की चाल से उसकी संतुलन, सतर्कता, अनुशासन आदि कई अच्छाइयों की झलक मिलती है। यह वाहन दो पहियों पर श्रम (बिना मोटर या अन्य शक्ति के) से चलने वाला होता है। पांवों से पेंडल लगाने में खुद की ताकत का ही चाल में असर दिखाई देता है। एक क्षण के लिए भी जो संतुलन बिगड़े तो साइकिल सवार को नीचे गिर पड़ने में देर नहीं लगेगी। संतुलन तब बनता है जब गति पर अपना नियंत्रण हो और यही नियंत्रण मजबूती पकड़ता जाए तो वह आत्म-नियंत्रण का रूप ले सकता है। साइकिल कैसे भी रास्ते पर चलाई जाती है-ऊबड़ खाबड़, विषम तल या ऊंची नीची जमीन पर भी-तो इसका असर सतर्कता पर पड़ता है-जितनी अधिक सतर्कता, उतनी ही अधिक सुरक्षा। सतर्कता एक क्षण के लिए भी हटी और कोई पत्थर बीच में आ गया तो चाल बिगड़ी और साइकिल नीचे गिरी सवार समेत। इस कारण साइकिल पर चलते समय लगातार सतर्कता जरूरी है। इसका परिणाम होता है जीवन में सावधानी की निरन्तरता बन जाती है। साइकिल व्यवस्थित रूप से चलाने का अभ्यास बन जाने के बाद अनुशासन भी स्वभाव में ढल जाता है। ऐसा होता है साइकिल चालन का सुप्रभाव। आप कहेंगे कि साइकिल तो लोग चलाते हैं, किन्तु सब में ऐसे गुण देखे नहीं जाते हैं। आपका कहना भी सही हो सकता है, क्योंकि जो मशीनवत् साइकिल चलाते हैं उनकी अन्तश्चेतना में ये गुण समाते तो हैं किन्तु स्वयं की अनभिज्ञता से उनका यथोचित विकास नहीं हो पाता है। किसी भी कार्य के साथ उसकी गहरी समझ भी जुड़नी चाहिए तभी वह अनुभव गुणदायक बनता है। अभिप्राय यह कि चाल की आन्तरिक कहानी बाहर की चाल से भी ज्यादा दिलचस्प हो सकती है बशर्ते कि चाल की आन्तरिक कहानी बाहर की चाल से भी ज्यादा दिलचस्प हो सकती है बशर्ते कि चाल की आन्तरिक गहराईयों को भी समझने की चेष्टा की जाए। फिर जीवन की हर चाल से भीतरी चाल का कोई न कोई अनुभव चरित्र का निर्माण एवं विकास करने का कारक बन सकता है। यों भीतर बाहर की संयुक्तता इतनी घनिष्ठ होती है कि कौनसा गुण बाहर से भीतर में जाकर स्थिर बन गया है और कौनसा गुण भीतर से बाहर आकर साकार रूप ले बैठा-इसका ज्ञान करना या भेद जानना कठिन होता है। मुख्य बात है मनुष्य की चाल का स्वस्थ रूप में ढलना, विपथगामी न बनना और किसी भी परिस्थिति में थकने का नाम न लेना। यह सब हो जाए तो समझिए कि गति बन गई और चरित्र निर्मित हो गया। फिर चरित्र के विकास का तथा चरित्र सम्पन्नता प्राप्त करने का उद्देश्य सम्मुख रह जाएगा।
शिशु की अंगुली पकड़कर उसे चलना सिखाने वाले अभिभावकों को और बाद में चलने को समझ के साथ जोड़ने वाले शिक्षकों का प्रधान कर्त्तव्य है कि शुरू से सही चाल ढाली जाए, उसमें स्थिरता और दृढ़ता पैदा की जाए और किसी भी कारण से चाल में ढिलाई आने लगे तो उसे वापिस पटरी पर लाने के कारगर उपाय भी समझाए जाए। बड़े होने पर तो चाल के अभिभावक और शिक्षक दोनों ही उसके स्वयं के अनुभव हो जाते हैं। अनुभवों से मनुष्य बहुत सीखता है और अपनी चाल के ओज को बनाए रखता है। इस पर भी चाल कहीं लड़खड़ाए तो धर्म गुरुओं का दायित्व बनता है कि वे उसकी चाल को थामें, सुधारें और स्वस्थ बना दें। मनुष्य की चाल जो शुरु से आगे तक जमी हुई
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