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चरित्रबल से ही घूमेगा शुभंकर परिवर्तन का चक्र
किया जाएगा कि इनके फैलने के कारण क्या हैं तथा इन्हें दूर करने के उपाय क्या हैं? यह भी जानना होगा कि व्यक्ति इनके जाल में क्यों फंस जाता है और किस प्रकार अपने जीवन को भी विकृत, विषम एवं विसंगत बना लेता है? इनसे संबंधित कुछ समस्याओं का आगे उल्लेख किया जाएगा किन्तु समुच्चय में इनका आकलन किए बिना विश्व के विभिन्न क्षेत्रों तथा विभिन्न वर्गों के व्यक्तियों के जीवन में चरित्र निर्माण की संभावनाओं की ठीक से जानकारी नहीं की जा सकेगी।
11. मनुष्य की धन लिप्सा पर सांघातिक चोट करो : आज की सारी बुराइयों के जड़ में जावें तो एक बुराई जो वृहदाकार में दिखाई दे रही है, वह है मनुष्य की धन लिप्सा । धन सबको चाहिए इसमें कोई विवाद नहीं, बल्कि इस सुव्यवस्था की नितान्त आवश्यकता है कि सभी मनुष्यों की मूल आवश्यकताओं की नियमित पूर्ति होती रहे । पेट पूर्ति तो जरूरी है। किन्तु जो अव्यवस्था है वह है पेटी - पूर्ति की और इस तृष्णा का कोई अन्त नहीं। यह धन लिप्सा ही दैन्य, शोषण, उत्पीड़न आदि को चरम तक ले जाने वाली बुराई है और इस पर अब सांघातिक चोट जरूरी हो गई हैं। इसका उपाय यही है कि धन को सब ओर बहता हुआ द्रव्य बनाओ जैसे कि शरीर में सब ओर खून का संचरण चलता रहता है। शरीर स्वास्थ्य के समान सामाजिक स्वास्थ्य भी वैसे ही बनेगा।
12. चिन्तन - स्वाध्याय की परिपाटी को नियमित बनाओ : आज की अधिकांश समस्याएं इसी कारण है कि कोई भी कार्य शुरू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर गहरा विचार नहीं किया जाता । व्यक्ति स्वयं यह नहीं सोचता कि दिन भर में उसे क्या करना है? यदि किसी भी प्रश्न पर पहले ही गंभीरता पूर्वक चिन्तन कर लिया जाए तो काम का उसी रूप में निर्णय हो सकेगा कि उसको करते समय कोई समस्या पैदा ही न हो। चिन्तन और स्वाध्याय दोनों ऐसी प्रणालियां हैं जिनके प्रभाव व्यक्ति एवं समूह के जीवन को सुव्यवस्थित एवं उन्नतिशील बनाया जा सकता है।
13. मन को समझो और उसे घोड़े की तरह चलाओ : बंधन का कारण भी मन ही होता है और मन ही मुक्ति भी दिलाता है। 'मन के हारे हार है और मन के जीते जीत।' अभिप्राय यह कि मन इन्द्रिय सुख व स्वार्थ में लिप्त हो जाए तो बंधन ही बंधन है और मन यदि इन्द्रियों पर नियंत्रण कर
तथा आत्मा की आवाज के अनुसार चले तो मुक्ति दूर नहीं रहती। प्रश्न यही है कि मन को आत्मनियंत्रण में कैसे लें ? मन को घोड़े की तरह चलाओ मगर उसे बेलगाम न रखो। वह खूब तेजी से दौड़े पर वह दौड़े मुक्ति के पथ पर । मन पर लगाम लगाने का काम अभ्यास से ही सफल बनाया जा सकता है और चरित्र निर्माण अभियान के सहभागियों को इस तरफ खास ध्यान देना चाहिए। विकसित मनोबल के बिना संघर्ष में टिका नहीं जा सकता और अभियान के पग-पग पर मनोबल के प्रयोग की अपेक्षा रहती है।
14. 'मैं' को हमेशा 'हम' में बदलते रहो : 'मैं' को 'मैं पन' में फंसाए रखा तो वह अहंकार होगा तथा सारी विषमताओं का मूल कारण यह अहंकार ही होता है। अहंकार को घटाएं - मिटाए बिना गति नहीं । इसका एक ही उपाय है कि 'मैं' को सदा और सर्वत्र 'हम' में बदलते रहो। यह विश्व क्या है, ब्रह्मांड क्या है? 'स्व' और 'पर' मिलाकर ही तो 'सर्व' बनता है। 'स्व' अकेला हो सकता है और समाज अकेला 'स्व' एक कदम भी नहीं चल सकता है सर्वत्र 'पर' के सहयोग की
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