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चरित्र गति हेतु ग्राह गुणसूत्र व प्रचार नेटवर्क
चलता
तो ऐसी हालत में कोई भी झुंझला ही जाता है। आखिर देवताओं में जो विवेकशील थे और चरित्रशीलता को समझते थे, उन्होंने एक तरकीब निकाली। अपने हाथ से स्वयं तो नहीं खा सकते थे किन्तु सीधे हाथ से सामने वाले को तो खिला ही सकते थे। बस, उन देवताओं ने आमने-सामने वालों को खिलाकर अपनी क्षुधा तृप्त कर ली। शेष जो इतने उदार नहीं थे अथवा स्वार्थ में ही फंसे हुए थे, भूखे ही रह गए। तब विष्णु ने समझाया- देखो, जिन्होंने एक दूसरे को खिलाया, वे देवता हैं और जिन्होंने किसी को नहीं खिलाया, वे राक्षस हैं ।
वास्तव में यह रूपक जीवन की ज्वलन्त समस्या का समाधान करता है । देव और राक्षस के विभाजन का आधार इसमें एक सामाजिक ऊंचाई पर खड़ा किया गया है और उसमें चरित्रशीलता और चरित्रहीनता का अन्तर भी स्पष्ट हो जाता है। जो दूसरों को खिलाता है, वह स्वयं भी भूखा नहीं रहता और बड़ी बात यह है कि वह देवत्व के आदर्श को आत्मसात् करता है। जबकि स्वयं के ही पेट भरने की चिन्ता में पड़ा रहने वाला स्वयं भी भूखा रहता है और समाज में भी उसका राक्षसी रूप ही प्रकट होता है। इन्हीं वृत्तियों के आधार पर चरित्र की महत्ता का अंकन किया जाना चाहिए तथा चरित्र निर्माण अभियान के माध्यम से देवत्व को आदर्श मान कर चरित्र विकास में ठोस प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
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