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विश्व रचना, व्यवस्था का परिदृश्य एवं संतुलन की सुई
अनेक मोड़ों से गुजरता हुआ प्रवाह चलता ही रहता है, किन्तु विवेकी मन उस प्रवाह में से निष्कर्ष के मोती चुनता है और मेरे विचार प्रवाह के ऐसे ही कुछ कच्चे-पक्के मोती मेरी इस काव्य रचना में बिखरे हैं और इसी संदर्भ में मैं यहां विश्व रचना, व्यवस्था के वर्तमान परिदृश्य एवं सबके बीच ऐसी सन्तुलन की सुई के बारे में अपने विचार रख रहा हूँ कि समुचित संतुलन की शक्ति चरित्र सम्पन्नता के आधार पर स्थापित की जाए और विश्व-व्यवस्था को सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय अधिक समरस, सुखद एवं सुन्दर बनाई जाए।
चर्चा करें कि विश्व-रचना की शाश्वत दृष्टि क्या है? विश्व की व्यवस्था किन तत्त्वों के आधार पर संचालित होती है तथा उन तत्त्वों का पारस्परिक संबंध क्या है? इसी परिप्रेक्ष्य में आकलन करें कि आज की व्यवस्था कितनी विकृत है, क्यों विकृत है और इस विकृति को दूर करने का मनुष्य का कितना दायित्व है? दो तत्त्वों की सत्ता के आधार पर ही रचित एवं संचालित है विश्व : _ विश्व के रहस्यों को ज्ञात करने की दिशा में मानव प्रारंभ से ही प्रयत्नशील रहा है, उसकी जिज्ञासा जागती रही है और वह साधना व साहस के साथ अनुसंधानों तथा आविष्कारों की पंक्तियां खड़ी करता रहा है। आज भी उसका वही क्रम चल रहा है और भविष्य में भी उसके चलते रहने की पूरी संभावना है, क्योंकि संसार के रहस्य अनन्त हैं। कभी किसी क्षेत्र में अधिक शोध चलती है तो कभी किसी अन्य क्षेत्र में, किन्तु क्रम भंग नहीं होता। सर्वथा अज्ञात रहस्यों के प्रति अथवा भयंकर कठिनाइयों के प्रति भी उसके उत्साह में कमी नहीं आती। विश्व को एक पहेली मानते हुए मानव प्रयत्न करता रहता है उसे सुलझाने की, इस ध्येय के साथ कि वह अनबुझी न रहे।
ज्ञानियों और साधकों ने इस पहेली को गहराई से समझा है और दूरदर्शिता से उसकी सुलझन भी सामान्य जन को बताई है। विश्व का अस्तित्व मूल रूप से दो ही तत्त्वों पर निर्भर है और इन दो तत्त्वों के मेल से ही विश्व की रचना है तो इसी से विश्व-व्यवस्था का संचरण है। इन दो तत्त्वों में एक जीव कहलाता है जो शाश्वत, चिन्मय और अरूपी है तो दूसरे तत्त्व का नाम है जड़ या पुद्गल जो क्षणभंगुर, अचेतन और रूपी यानी रूपवान है। यह आपका शरीर भी इन्हीं दोनों तत्त्वों की रचना ही है-जीव और जड़ का संयोग। आत्मा चेतन तत्त्व है तो शरीर अचेतन तत्त्वों का पिंड, किन्तु दोनों के संयोग से साकार जीवन उत्पन्न हो जाता है। इनके सिवाय धन, सम्पत्ति, महल, हवेली आदि के विविध दृश्य पदार्थ पुद्गल के ही अनेकानेक रूप हैं जिनमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। कारण, पुद्गलों का स्वभाव ही गलना, बदलना कहा गया है (पूरणात् गलनातीति पुद्गलः)। ___ यह विशाल विश्व पुद्गल-परमाणुओं से अटा पड़ा है और इन्हीं के मिलने, अलग होने और रूप बदलने के कारण सारी दृश्यावलियों का जन्म और उनमें परिवर्तन होता है। यह जन्म, विकास और विनाश विभिन्न अवस्थाओं एवं काल क्रम के अनुसार घटित होता रहता है। किन्तु उसका प्रधान कारक है चैतन्यत्त्व, जिसके मेल से विश्व की समस्त गतिविधियाँ परिलक्षित होती हैं। प्रकृति के विभिन्न रूपों में पुद्गल-परमाणु क्रीड़ाएँ करते रहते हैं तथा सुन्दर-असुन्दर दृश्यों की रचना करते हैं।
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