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सुचरित्रम्
कितने डूबे, कितने तर रहे जो रहते हैं मजबूत वे होते हैं अवधूत न समय रोक पाता उन्हें न कठिनतम बाधाओं की भीर वे चीरते ही जाते नीर को बढ़ते ही जाते वे धीर-धीर हर मुश्किल ही लगती है उनको अपनी मंजिल कोई व्यवधान न कर पाता उनको शिथिल वह तो बन जाता है वरदान उनका सुदृढ़ भाव, अटल प्रभाव बन जाता भावी का अभियान बस, तुम भी बढ़ो संगी-साथियों, समय की बैशास्वियों को तोड़ अलख जगाते चले चलो हर सांस मिलाकर सांस-सांस में पथ का संगीत गुंजाते चले चलो समय की नदी में सबके साथ
समरस आनन्द बहाते चले चलो। समय का प्रवाह तो अनवरत चलता ही है, किन्तु उसके साथ जब कभी विचारों का प्रवाह जुड़ जाए तो भावुक मन में काव्य-प्रवाह भी उमड़ पड़ता है। मेरा यह काव्य-प्रवाह भी अन्तर्मन के चिन्तन के साथ इसी तरह उमड़ा है। कुछ एकान्त-शान्त वातावरण मिला कि विचारों का प्रवाह फिर आया विश्व रचना पर, विश्व व्यवस्था के वर्तमान परिदृश्य पर और सबके केन्द्र मानव की गतिविधियों पर। सोचने लगा-समय नदी प्रवाह के समान बिना रूके निरन्तर बहता है तो इस 'समय' का क्या प्रभाव होता है इस विश्व के संसरण पर? गतिशीलता जैसे समय और नदी की लाक्षणिक पहचान है, वैसी ही पहचान इस संसार की नहीं है क्या? समय बहता है, नदी बहती है तो यह संसार भी तो निरन्तर बहता ही है। समीक्षा यही करनी होती है कि संसार की गतिशीलता कब उत्थान की ओर होती है तो कब क्यों पतन की ओर हो जाती है? समय की नदी का पानी कब मोती, मानुष, चून का पानीदार बना देता है। तो कब क्यों समय के प्रवाह में इन सबका पानी उतर जाता है? संसार में सबको अपनी-अपनी यात्रा करनी होती है, लेकिन यह किन कारणों से अकेली और किस प्रकार सांझी यात्रा बन सकती है? मन के धनी मनुष्य पर कमजोरी क्यों हावी हो जाती है और वही मनुष्य धीर-वीर बनकर मंजिल पर ही नहीं पहुँचता, बल्कि औरों के लिये भी उन्नति का आदर्श छोड़ जाता है-ऐसा क्यों? और विचारों का कहाँ अन्त आता है?