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नव-जागरण का बहुआयामी कार्यक्रम
13. मैं 'स्व' हूँ, संसार के सर्व प्राणी, भूत, जीव, सत्त्व 'स्व' से सम्बद्ध हैं, मेरा उनके प्रति कर्त्तव्य है
ऐसी सहयोगात्मक चेतना बनी रहे। 14. मैं आत्मा हूँ, मैं भी परमात्मा हूँ। न मैं शरीर हूँ, न इन्द्रियां, न मन, न और कुछ। ये सब मैं नहीं
हूँ। न यह मेरा है, जो 'यह' होता है, वह मैं नहीं होता, जो 'वह' होता वह यह नहीं होता। मैं इनसे परे हूँ। जो परमात्म स्वरूप है, आनन्दमय नित्य चैतन्य स्वरूप है वह मैं हूँ, जिसका न जन्म होता है, न मरण, न यौवन, न वृद्धत्व। जो शिव, अचल, अरूज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध अनश्वर
सुखों में रमण करने वाला है, वह 'मैं' हूँ-इस विराट सत्य-तथ्य की अनुभूति लेते रहें। मानवीय दृष्टिकोण के साथ सार्वजनिन चरित्र निर्माण का उद्देश्य बनावें:
आज व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व के सभी स्तरों पर चरित्र निर्माण की महती आवश्यकता है। चरित्र का स्वरूप-चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो या सामूहिक जीवन में बहुआयामी होता है। व्यक्ति एक साथ धार्मिक, सामाजिक, व्यापारिक, व्यावसायिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक आदि कई क्षेत्रों में कार्य करता है। सर्वत्र उसकी कार्य प्रणाली का प्रभाव समूह, संगठन या समाज आदि पर भी अवश्य पड़ता है। दूसरी ओर किन्हीं क्षेत्रों में कार्य न करते हुए भी सामूहिक अथवा सामाजिक प्रभाव उस व्यक्ति पर पड़ता है। इस संदर्भ में चरित्र निर्माण की महत्ता एवं अनिवार्यता समझी जानी चाहिए।
एक पहलू यह भी विचारणीय माना जाना चाहिए। जन्मना और कर्मणा जीवनशैली में अन्तर होता है। जन्मना कोई एक डॉक्टर के घर जन्म लेता है तो वह निश्चित रूप से डॉक्टर नहीं बन जाता है। डॉक्टर के घर में जन्म लेने के बाद भी उसे डॉक्टरी की डिग्री प्राप्त करने के लिए कर्मणा पुरुषार्थ करना पड़ता है। वैसे ही एक चरित्रनिष्ठ व्यक्ति के घर में जन्म लेने से कोई स्वतः ही चरित्रनिष्ठ नहीं हो जाता है, हां, संस्कार उसे अवश्य मिलते हैं। किन्तु अनुकूल संस्कार के उपरान्त भी चरित्रनिष्ठा की उपलब्धि के लिए जन्म के साथ उसे कर्मणा पुरुषार्थ भी करना होता है।
.. ___ चरित्र का मूल संबंध आत्मा, स्वभाव एवं हृदय से मानना चाहिए। हृदय जिसका दयालु, उदार एवं ऋजु होता है, वह चारित्रिक मूल्यों को सरलता से उन्नत बना लेता है। हृदय या मन वह भूमि है, जिसमें जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल प्राप्त होता है। हृदय में चारित्रिक निष्ठा जगाने हेतु क्रमबद्ध योजना बनाना जरूरी है। चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में कई तत्त्वों की संयुक्तता आवश्यक है जैसे कि माता-पिता के संस्कार, शुद्ध वायुमंडल, श्रेष्ठ शिक्षण-प्रशिक्षण तथा चरित्रशीलता के प्रति दृढ़ निष्ठा। आज जबकि सम्पूर्ण विश्व में चरित्र-विनाश के कारण जैसी भयावह परिस्थितियां ढलती जा रही हैं, उनको ध्यान में रखते हुए चरित्र निर्माण की शीघ्रगामी प्रक्रिया तथा चरित्रशील समाज की संरचना अनिवार्य प्रतीत होने लग गई है, जितनी शायद पहले कभी नहीं रही हो। व्यक्ति से लेकर विश्व तक के कर्तव्यों के अपने-अपने क्षेत्रों में चरित्र की महत्ता, अर्थवत्ता तथा गुणवत्ता को समझनासमझाना महत्त्वपूर्ण है।
सार्वजनिन मानवीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो जैन दर्शन के सिद्धान्त वस्तुतः मानव धर्म का
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