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मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है
निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि विश्व समाज के प्रति मानव व्यक्तित्व में प्रतिष्ठित अहिंसा की भावना जब तक कार्यरत नहीं बने, तब तक अहिंसक समाज रचना की बात केवल विचारों में ही रहेगी, क्योंकि विश्वानुभूति से ही व्यक्ति व्यक्ति में समानता और सहजीवन के संस्कार उत्पन्न किये जा सकते हैं तथा अपने दृष्टिकोणों एवं लक्ष्यों को विशाल एवं व्यापक उद्देश्यीय रूप दिया जा सकता है। समाज में अहिंसा और प्रेम के भाव जगाने के लिए दृष्टि का विस्तृत होना अनिवार्य है-अपने-पराये के ये ओछे घेरे, स्वार्थ और इच्छाओं के कलुष कठघरे तोड़ देने होंगे। विश्व की प्रत्येक आत्मा के सुख-दुःख के साथ एक्यानुभूति का आदर्श जीवन में लाना होगा। भारतीय संस्कृति का यह स्वर तो अतीव उच्चादर्शयुक्त है कि यह मेरा है, यह दूसरे का है-ऐसा मानना संकुचित हृदय वालों का काम है, क्योंकि विशाल हृदय वाले तो पूरे विश्व को ही अपना कुटुम्ब मानते हैं ( अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् )। ___ व्यक्ति का व्यक्तित्व इतना श्रेष्ठ हो कि वह अपने अर्जित सद्गुणों का प्रयोग सर्वहित में ही करे
और उसका व्यक्तित्व इतना विशाल भी हो कि वह परिवार से लेकर सभी वर्गों, समाजों, राष्ट्रों तथा विश्वभर में सर्वांगीण उन्नति एवं समता स्थापना की दृष्टि से प्राभाविक भी बने। ऐसे उत्तम व्यक्तित्व के निर्माण से ही धर्म, विज्ञान और विकास सार्थक बन सकते हैं। इस व्यक्तित्व के निर्माण का एक ही सशक्त साधन है कि चरित्र का निर्माण हो, वह सुगठित बने, निरन्तर विकास करता रहे तथा एक दिन सम्पन्नता से प्रकाशमान बन जाए।
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