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________________ मानव सभ्यता के विकास की कहानी इसी त्रिकोण पर टिकी है व्यक्ति स्वतंत्रतापूर्वक चारों कोणों को भली प्रकार समझ कर धर्म एवं विज्ञान के सम्बन्धों पर अपना विचार स्थिर कर सकता है। धर्म का अस्तित्व ही इस मान्यता पर निर्भर है कि विश्व एक व्यवस्थापूर्ण घटक है और इस विश्वास के कारण ही जब अन्यायपूर्ण घटनाएं घटती हैं तो सामान्यजन तक का धर्म के प्रति विश्वास डगमगा जाता है। धर्म का मुख्य काम है इस विश्वास को बनाए रखना। दूसरी ओर विज्ञान का अस्तित्व जानने की मूल इच्छा तथा प्रबल जिज्ञासा पर टिका है। सच तो यह है कि यदि धर्म को न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के विश्वास का प्रतीक मान लिया जाए तो वह विज्ञान के कार्य को रोकेगा नहीं, अपितु भरपूर प्रोत्साहन भी देगा। धर्म-विज्ञान के संबंधों से संबंधित इस विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि धर्म और विज्ञान के दोनों क्षेत्रों में प्रचलित रूढ धारणाएं दोनों के समागम की बाधक बनी हुई है और ये ही धर्म और विज्ञान की अपनी-अपनी मजबूरियां हैं, जिन्हें मिटा देने का अब वक्त आ गया है। ये मजबूरियां समय की कसौटी पर खरी नहीं उतरी है और इनका लाभ उठाने वाला भी एक निहित स्वार्थी वर्ग है जिसे धर्म और विज्ञान से भी ऊपर अपनी ही स्वार्थपूर्ति की चिन्ता रहती है। इस कारण अब तक धर्म और विज्ञान दोनों का जितना लाभ जनता को मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल पाया है। अब उससे वंचित रहना उचित नहीं। अब बात सोचनी होगी धार्मिक विज्ञान एवं वैज्ञानिक धर्म की : धार्मिक विज्ञान तथा वैज्ञानिक धर्म का मौलिक अर्थ यही माना जाए कि धर्म और विज्ञान के बीच सम्बन्ध इतने प्रगाढ़ तथा प्राभाविक बने जो धर्म को अंधश्रद्धाओं के अंधेरे कुएं से निकाल कर ज्ञान की प्रभा से ओजमय बनावे तो विज्ञान पर धर्म की सर्वहितैषिता, पवित्रता एवं शुभता का नियंत्रण स्थापित किया जाए। धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी तो हैं ही नहीं, परन्तु दोनों को घनिष्ठ रूप से परस्पर पूरक बनाया जाए। मानव चरित्र के विकास एवं जीवन के अभ्युदय के लिए शुद्ध धर्म भी चाहिए और हितकारी विज्ञान भी। एक के भी अभाव में जीवन में वांछित पूर्णता प्राप्त करना दुष्कर होगा। . संगठित मतवाद तथा पूंजीवाद के कुप्रभाव से आज धर्म के क्षेत्र में भले अनेक विकृतियां आ घुसी हों, किन्तु धर्म की उपयोगिता शाश्वत है। मानव हृदय को और उसकी भावनाओं को सही पोषण सच्चे धर्म से ही मिल सकता है। अपने जैसे अस्तित्व वाले व्यक्ति या पदार्थ के साथ हम समझ या बुद्धि का सम्बन्ध बिठा कर व्यवहार चला लेते हैं, लेकिन भीतर में कुछ अधिक पाने की भूख बनी रहती है। वह भूख निश्चित रूप से है और उस पर तर्क उचित नहीं। व्यवहार जिस बुद्धि की शक्ति से चलता है, उसका उत्स मूल की इस भावात्मक भूमिका से अभिन्न है। धर्म इसी भावात्मक भूमिका के तल की अनुभूति का नाम है। यह अनुमान सत्य जैसा लगता है कि जब मनुष्य आज की तीव्र गति की तथाकथित प्रगति से ऊब जाएगा, तब वह धर्म की संभावनाओं की ओर ही मुड़ेगा। आज गहराई से झांके तो वर्तमान समाज के सभ्य स्तर के नीचे एक पूरी की पूरी दुनिया अपनी अलग जिन्दगी जीती है और जिसका ढांचा पूरी तरह से नरक जैसा है। यह अपराधों की 449
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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