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________________ नई सकारात्मक छवि उभरनी चाहिए धर्म-सम्प्रदायों की जगह-जगह हुए खूनी दंगों की सबकी याद खत्म नहीं हुई है तो छोटे-मोटे संघर्ष प्रत्येक धार्मिक क्षेत्र में चलते रहे हैं। विश्व के सभी भागों में जितने भी विवाद उठे हैं, संघर्ष उभरे हैं और मत-पंथों का विस्तार हुआ है, वे सब धर्म में मात्र बाहर के व्यक्तित्व, बाहर के क्रियाकांड और बाहर की ही दृष्टि अपना लेने के कारण ही हुआ है। भारत में ही देखें कि वैदिकों के शैव और वैष्णव मतों, बौद्धों के हीनयान व महायान मतों की भी उपशाखाओं पर उपशाखाएं निकलती गई और विवाद के दायरे बढ़ते रहे। जैनों को ही ले लें-दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूप में दो टुकड़े हुए और अब एक-एक टुकड़े के दसियों टुकड़े हुए हैं व होते जा रहे हैं। आखिर यह कौनसा जमीन-जायदाद का झगड़ा है, सो मूल शाखाएं भी विभाजित होती गई और नई-नई उपशाखाएं कायम होती रही। मूल में वर्चस्व और कीर्ति की लालसा ही काम करती है. क्रान्तिकारी बदलाव मुश्किल से ही कहीं दिखाई देता है। असल तथ्य यह है कि संसार छोड़ कर संयमी बनने वालों के मन में भी निष्कामता और निस्पृहता का भाव मंद हो गया है और बाह्य आडंबर सबके (अधिकांश के) माथे पर चढ़ कर बोल रहा है। किसी एक ही धर्म-परम्परा की बात नहीं है, बल्कि जो जो धार्मिक परम्पराएं धर्म के बाह्य अतिवाद से ग्रसित हुई अर्थात् जिनका धर्म विचार सिर्फ बाहर ही में अटक गया तो वहां पर आन्तरिक व्यक्तित्व को संवारने की बात तो बहुत दूर रह गई, भीतर में झांकने की प्रवृत्ति ही समाप्त हो गई। जहां आत्मालोचना नहीं रही, वहां पथ भ्रष्ट न होने का आत्मानुशासन ही कहां बचा? ऐसी धार्मिक संस्थाएं, सम्प्रदाएं आदि भीतर में गिरती गई और भीतर के पतन को नजरन्दाज करने के लिए बाहर में आडम्बरों की धूम मचाई जाने लगी। वैष्णव परम्परा में जब शैव व वैष्णव भक्तों के बीच झगड़े तीखे हुए और सुलझे ही नहीं तो तिलक को तूल दिया गया। कोई सीधा तिलक लगाता है, कोई टेढ़ा, कोई त्रिशूल मार्का, कोई 'यू' मार्का, कोई गोल बिन्दु और तिलक को मुक्तिदाता बना दिया। तिलक लगाया तो दुराचारी भी मुक्ति पा लेगा और नहीं लगाया तो सदाचारी भी बाहर रहेगा। सोचने की बात है कि धर्म सिर्फ बाहर में रख दिया गया और भीतर को वीरान बना दिया. धर्म के पोंगापंथियों में। गुरु के स्थान पर गुरुडम रह गया और सावचेत अनुयायियों के स्थान पर अंधश्रद्धालु भक्त। बौद्ध परम्परा में भिक्षु को चीवर धारण करने का विधान है-चीवर का अर्थ है फटा पुराना सिला हुआ वस्त्र यानी कि कंथा। अब परम्परा का पालन कैसे होता है कि एकदम नये रेशमी वस्त्र के टुकड़े किए जाते हैं और उन टुकड़ों को सिल कर चीवर बनता है। ये सब धर्म को बाहर से देखने वाली परम्पराएं बन गई हैं। ये बाहरी क्रियाओं को, रीति रिवाज, पहिनावे और बनाव को ही धर्म समझ बैठी हैं, ये सब तो एक प्रकार की सभ्यता अथवा कुलाचार की मात्र प्रतीकात्मक बाते हैं। बाहर में क्या किया जाता है, उससे सच्चे धर्म का कदापि मूल्याकंन नहीं किया जा सकता है। धर्म को बाहर से अटका देने के कारण ही धर्म और सम्प्रदाएं अशुभता की कारण बन गई। बाहर की भूल-भुलैया से निकल कर सकारात्मक छवि बनाने की जरुरत : . जब भीतर से धर्म निकल जाता है और वह सिर्फ बाहर में ही अटक जाता है तो निश्चय है कि वातावरण में जडता, अंधता और कट्टरता का फैलाव हो जाता है। आम लोग तब भेड़चाल में चलते 433
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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