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सुचरित्रम्
सम्प्रदायों की सम्प्रदायता में कई कारणों से जब आशय की भिन्नता उभरने लगी, तब उनकी निर्देशित क्रियाओं में भी भिन्नता झलकने लगी। फिर भी यह माना जाता रहा कि सम्प्रदायों की भिन्नताओं के बीच में भी यदि व्यक्ति की दृष्टि और कृति सत्यमय बन गई है तो कोई भी सम्प्रदाय उसके विकास में बाधक नहीं बन सकेगी। यह मान्यता उस अवस्था में थी जब व्यक्ति धर्म और सत्य का पारखी था। इसी पर तो भगवान महावीर ने अपने श्रावक-श्राविका समुदाय को साधुसाध्वी समुदाय का माता-पिता (अम्मा-पियरो) कहा। क्यों ऐसा कहा? इस कारण कि साधुसाध्वी भी यदि कहीं मार्गच्युत हो तो श्रावक-श्राविका उन्हें सावचेत करें और मार्ग भ्रष्ट न होने दें। यह निम्न श्रेणी का साधक होने पर भी श्रावक-श्राविका समुदाय की योग्यता एवं परीक्षा बुद्धि का विश्वास था कि वह अपने से ऊपर की श्रेणी के साधकों के चरित्र पर भी निगाह रखें। जब तक विभिन्न सम्प्रदायों के अनुयायियों में ऐसी योग्यता और परीक्षा बुद्धि रही, तब तक न तो सम्प्रदायों का उद्देश्य चलित हुआ और न ही वे सच्चे धर्म का प्रचार-प्रसार करने से विमुख बनी। . क्यों गिरी सम्प्रदाएं अपने दायित्वों से और क्यों अशुभता की कारण बनीं? . शुभत्व भी भाव है और अशुभत्व भी भाव ही है, लेकिन दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर है। जहां शुभत्व मानव चरित्र का स्वभाव है, वहां अशुभत्व विभाव। अब इन भावों के स्रोत तो अनेक हो सकते हैं, परन्तु दोनों प्रकार के भावों का जन्म स्थल एक ही है और वह है मानव का अन्तःकरण। इसी अन्तःकरण में शुभता की ठंडी बयार भी चलती है तो अशुभता के आंधी-अन्धड़ भी। वही धर्म और वे ही सम्प्रदाऐं जो मानव के सर्वहित में संलग्न थी अर्थात् सम्प्रदायों के नायक धर्म के आन्तरिक पक्ष को प्राथमिकता देते थे, उन्हीं के अन्त:करण में शुद्धता, शुभता और सच्चाई के स्थान पर व्यक्तिगत वर्चस्व. मान-सम्मान आदि के निहित स्वार्थ पनपने लगे यानी कि भावों की अशभता फैलने लगी। अशुभता से अशुभता फैलती है या फैलाई जाती है। तब इन धर्म नायकों ने अपने अनुयायियों की घेरेबंदी शुरू की, उनमें अन्ध श्रद्धा पनपाई और कट्टरपंथिता पैदा की। यों शुभता का . वातावरण मलिन होने लगा। तब आन्तरिक व्यक्तित्व को परखने और मान देने की वृत्ति उखाड़ी जाने लगी तथा बाह्य व्यक्तित्व को ही मानने पर बल दिया जाने लगा। सम्प्रदाएं जिनका क्षेत्र विशाल था और कार्य व्यापक, अब संकुचित होने लगी, क्योंकि वे धीरे-धीरे निहित स्वार्थियों के अधिकार में जाने लगी। बाहरी दिखावा और आडंबर ही धर्म व सम्प्रदायों का आभूषण बन गया। ऐसे में सम्प्रदाएं अपने मूल दायित्वों के निर्वाह में जुटी हुई कैसे रह सकती थी? वे अपने शुभ दायित्वों से गिरने लगी तथा अपना-अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने और अपने घेरे में आए अनुयायियों को कट्टर बनाने में जुट गई। जब ये सम्प्रदाएं अपने सही उद्देश्यों से गिरने लगी तो यह होना ही था कि वे अशुभता की कारण बनें। इस प्रकार धर्म को भी शुभता से हटा कर अशुभता के बीहड़ वन में धकेला जाने लगा। इसका नतीजा यह सामने आया कि धार्मिक क्षेत्र में विवाद और संघर्ष बढ़ने लगे तथा रागद्वेष दूर करके वैराग्य और वीतरागता का उपदेश देने वाली सम्प्रदाएं भी राग द्वेष के दल-दल में बुरी तरह फंस गई। वही धर्म, मजहब और वे ही सम्प्रदाएं जो मानव समुदायों को जोड़ा करती थी, अपनी नामवरी की आपाधापी में सब ओर तोड़ने की प्रक्रिया चलाने लगी। हिन्दू-मुसलमानों के बीच
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