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चरित्र को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ले जाने हेतु सद्भाव जरूरी
अकेले देश भारत में ही जब अनेक भाषा-बोलियां, वेशभूषा, रीति-रिवाज, धर्म-मजहब, जीवनशैलियां, व्यवहार प्रणालियां मौजूद हैं तो पूरे विश्व में तो इन प्रकारों की संख्या कई गुनी होगी। भारत का इतिहास और वर्तमान वातावरण आश्वस्त करता है कि इन बहुविध विविधताओं की सुरक्षा भी हो रही है तो मूल में राष्ट्रीय एकता का भाव भी प्रबल है। इसी प्रकार बहुसंस्कृतिवाद की अवस्था का भी विश्वस्तरीय तालमेल बैठ सकता है। इसके लिए आवश्यकता होगी तो ऐसे भावनात्मक परिवर्तन की कि विश्व का प्रत्येक नागरिक विश्व परिवार का सदस्य है तथा उसे प्रत्येक समस्या का समाधान पारिवारिक दृष्टिकोण से ही खोजना होगा। मानव चरित्र को इसी रूप में विकसित करना होगा कि समूची मानव जाति की एकता के आधार पर परस्पर में सहानुभूति, स्नेह तथा सहयोग के सूत्र जुड़े।
मानव मन में एकता, समता तथा एकरूपता की चाह सदा से रही है। उसका यह सपना भी रहा है कि उसकी यह चाह विश्वव्यापी स्वरूप ग्रहण करें। इस कारण वह कई बार ऐसी आशंकाओं से भी घिरता रहा है कि सब ओर बढ़ती हुई विविधताओं तथा फैलते हुए विरोधाभासों से कहीं विश्व एकता का सपना भंग न हो जाए। कभी-कभी उसकी मान्यता बन जाती है कि इन भिन्नताओं के कुप्रभाव से धर्म, विज्ञान, भाषाएं, साहित्य, कला और राष्ट्र तक जैसे खिड़कियों की कोठरी में बन्द हो गये हैं और उनका विकास अवरुद्ध हो गया है। उसे यह भी लगता है कि लोगों के दिमागों में अलगाव की भ्रान्तियां, अज्ञान, विद्वेष, असहिष्णुता, घृणा आदि की विकृतियां पनप रही हैं जो एकता के लिए शुभ लक्षण जैसा कि सोचा जाता है। उसके सिवाय कई कारणों के आधार पर बन रहा वातावरण इस सोच को बेबुनियाद भी साबित कर रहा है। भारत में तो ऐसा दृष्टिकोण प्रत्यक्षतः ही दिखाई दे रहा है। यहां विविधता में एकता का प्रयोग काफी अंशों तक सफल रहा है तथा इस विधि का कार्यान्वयन बड़े पैमाने पर करके भी सफलता अर्जित की जा सकती है। इस देश में भी इस प्रयोग को जारी रखा जाना चाहिए। यह प्रयोग असामान्य है कि भारत अनेक जिह्वाओं से, स्वरों से तथा समुदायों की आवाजों से बोलता है और फिर भी एकता की मूल ध्वनि सर्वत्र प्रसारित है। बहुसंस्कृतिवाद का सिद्धान्त ही एकता की सफलता की गारंटी बन सकेगा। ऐसी एकता जिसमें सभी अपनी-अपनी संस्कृतियों का अनुसरण भी करते रह सकेंगे। - इसके उपरान्त भी यह मान लेना भूल होगी कि एकता से संबंधित आशंकाओं से डरने की जरूरत नहीं है। कारण, अभी भी कुछ सशक्त वर्ग ऐसे हैं जिन्हें कट्टरपंथी कहा जा सकता है। ये वर्ग बहुसंस्कृतिवाद के विरुद्ध हैं और अपनी एक ही संस्कृति, एक ही भाषा और एक ही धर्म का फैलाव चाहते हैं। राष्ट्रीयता के प्रति कट्टरता भी इन वर्गों में है और कट्टरता सर्वत्र एकता की शत्रु होती है। एकता सबको साथ लेकर चलना चाहती है, वहां कट्टरता मनुष्य को अलग-अलग संघर्षशील गुटों में बांट देती है। ये गुट एकता के बाधक बने रहते हैं। अतः सर्वत्र कट्टरता को सहयोगिता में बदलना बहुत बड़ा रचनात्मक कार्य होगा। वर्तमान समय की मांग है कि सभी प्रकार की विविधताओं की सुरक्षा की जाए, उन्हें फलने-फूलने का अवसर दिया जाए, किन्तु कट्टरता से बनाई गई उनकी अन्तर्द्वन्द्व की वृत्ति को स्नेह और सहयोग से समाप्त कर उनके पारस्परिक सम्बन्धों को सहकारी
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