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________________ सुचरित्रम् सीमा स्वीकार करनी होती है जो वह यथाशक्ति न्यूनतम आवश्यकताओं के आधार पर मर्यादाएं ग्रहण करता है। पांचवें अणुव्रत के अनुसार खेती की जमीन, वस्तु सामग्री, सोना-चांदी, धन सम्पत्ति, अनाज आदि, नौकर-चाकर, पशु घोड़ा, गाय, भैंस आदि सबका परिमाण निश्चित किया जाता है और उसका यथाशक्ति पालन किया जाता है। यदि उस पालन में दोष लगे तो उसके लिए प्रायश्चित्त भी किया जाता है। इसी प्रकार सातवें अणुव्रत के अनुसार उपभोग (एक बार उपयोग में आने वाले पदार्थ भोज्य आदि) तथा परिभोग (बार-बार उपयोग में आने वाले पदार्थ वस्त्र आदि) की सामग्री की भी सीमा बांध कर मर्यादा ली जाती है जिसमें छोटी-मोटी वस्तुओं जैसे दतौन, उबटन, मुखवास तक शामिल हैं। कुल 26 प्रकार के पदार्थ लिये गये हैं। इस मर्यादा निर्धारण के दो उद्देश्य हैं-एक तो अंतर की आसक्ति घटती जाए और दूसरा बाहर की, एक व्यक्ति आवश्यकता से अधिक सामग्री अपने पास नहीं रखेगा, जिससे उसका विकेन्द्रीकरण होगा और सब उन सामग्रियों को यथोचित मात्रा में प्राप्त कर सकेंगे और सम वितरण हो सकेगा। महावीर का इस रूप में संविभाग का दर्शन अर्थशास्त्र का मार्गदर्शक सिद्धान्त है-जो न्यायपूर्ण दृष्टि से वितरण नहीं करता और बांटने में आनंद का अनुभव नहीं करता, वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता (असंविभागी असंगरुई...अप्पमाण भोई से तस्सिए नाराहए वयमिणं, प्रश्न व्याकरण सूत्र, 2-3)। महावीर का अर्थशास्त्र अर्थोपार्जन की मना नहीं करता, वह मर्यादा की बात करता है, विसर्जन की बात करता है और अपरिग्रहवाद की रूपरेखा प्रस्तुत करता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह अर्थशास्त्र मनुष्य की अन्तरात्मा में झांकता है तथा स्वेच्छिक त्याग को प्रोत्साहित करता है। यह अर्थशास्त्र जीवन की पूर्णता का विधान है जो अहिंसक जीवनशैली से प्राप्य है। इस अर्थशास्त्र का आधार बिन्दु यह है कि इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं अतः उनकी पूर्ति संभव नहीं, जो प्रयास संभव है वह है इच्छाओं का न्यूनीकरण, पदार्थों की मर्यादाओं का ग्रहण तथा पूर्ण अपरिग्रह का वरण। असीमित इच्छाओं तथा शान्ति के बीच कोई समझौता नहीं हो सकता है। इस दृष्टि से संविभाग नये अर्थशास्त्र का केन्द्र बिन्दु होना चाहिए। 3. सीमित स्वामित्व : सादा जीवन-उत्पादन तथा वितरण के सन्तुलन को निबाहने के लिए एक यह प्रयोग भी किया जाना चाहिए कि व्यक्तिगत स्वामित्व का दायरा बहुत छोटा हो ताकि संग्रह की नौबत ही पैदा न हो। दूसरे, संग्रहवृत्ति के अभाव में जीवन की सादगी की ओर रुचि बढ़ेगी तथा सादा जीवन, उच्च विचार की उक्ति चरितार्थ हो सकेगी। किन्तु ये सारे परिवर्तन उचित रूप से व्यक्ति एवं समूहों के चरित्र निर्माण तथा विकास पर निर्भर करेंगे। चरित्र के अभाव में कुछ भी संभव नहीं। सामाजिकता हजार जिह्वाओं से बोले, पर मूल जिह्वा एक हो : विश्व को एकता के सूत्र में बांधने के लिए उसकी बहुआयामी विविधताओं का गला नहीं घोंटा जा सकता है, बल्कि ऐसी व्यवस्था अपेक्षित रहेगी कि सभी प्रकार की विविधताएं फले-फूलें, किन्तु उन सबके बीच ऐसा तालमेल भी हो कि वह विविधता एकता की प्रतीक भी बने। यों कहें कि सामाजिकता चाहे हजार जिह्वाओं से बोले, लेकिन मूल जिह्वा एक होनी चाहिए-मौलिक स्वर तो एकता का स्वर ही होना चाहिए। 424
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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