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सुचरित्रम् ।
किसी नये विचार को आने और अपना असर दिखाने का अवसर ही नहीं मिलता। इससे वह विचारधारा संकुचित और कट्टर बन जाती है तथा उस समाज को अपनी ही श्रेष्ठता के हठ में जकड़ लेती है। फिर वैसा समाज निहित स्वार्थियों का समाज बन जाता है जो अपनी विचारधारा दूसरों पर थोपने लग जाता है-थोपना अर्थात् बलात् थोपना। यही आज के सबसे बड़े भय-आतंकवाद का रहस्य है। जो अमक मजहब को फैलाने के लिए खली हिंसा का सहारा लेते हैं और साथ नहीं आने वालों को काफिर समझते हैं, वे पूरी मानव जाति के लिए आतंक, दहशत या भय का कारण बन जाते हैं। इस कारण आज ऐसे अटल संकल्प यात्रियों की आवश्यकता है जो 'घृणा पाप से, नहीं पापी से' की मनोवृत्ति लेकर इस महाभय का मुकाबला करने के लिए तैयार हों। आतंकवाद का उग्रवाद एक प्रकार की मानसिक दशा ही है जो जाने-अनजाने में कट्टरता के बेहोश जोश में जम जाती है, जिसे उखाड़ने के लिए तन बल के विरोध में तन बल को ही लगाने से हिंसा बढ़ रही है-क्रियाप्रतिक्रिया का संकट गहरा रहा है, अत: इसके विरोध और निरोध के लिए मन-बल लगना चाहिए। मनोबल चरित्र विकास की उपलब्धि होता है और चरित्र विकास से मनोबल बढ़े और संकल्प शक्ति उससे जुड़े-इसके लिए चरित्र निर्माण की सशक्त गूंज चारों ओर मुखर बननी चाहिए, जो प्रखर होकर आतंकवादियों का हृदय-परिवर्तन कर सके। ___दूसरा महाभय है आणविक शस्त्रों तथा घातक शस्त्रों के अम्बार का, जिसने दुनिया को बारूद के ढेर पर बिठा दिया है। आज प्रत्येक नागरिक विनाश की आशंका से त्रस्त है। यद्यपि हिरोशिमा, नागासाकी (जापान) के बाद अणुबम का अब तक कहीं प्रयोग नहीं हुआ है, परन्तु सिर पर लटकती नंगी तलवार के नीचे कोई कब तक निःशंक रह सकता है? इस प्रकार भय और आशंका से संसार को कैसे और कब तक मुक्त बनाया जा सकेगा, यह ज्वलन्त प्रश्न है। ओशो रजनीश एक स्थान पर कहते हैं-'आतंक, भय, संदेह, दहशत आतंकियों या अणुबमों से नहीं है, वह तो एक मन:स्थिति है जो तुम्हारे अवचेतन मन में जम गई है। उनके अनुसार आतंक, भय आदि का सामना बाहुबल से नहीं, अपने मनोबल से किया जाना चाहिए और वह भी अपने ही मन के साथ संघर्ष करके कि जमी हुई भय आदि की परतें मानसिकता में से उखाड़ कर बाहर फैंक दी जाए।' भयग्रस्त मानसिकता को निर्भय बनाने के ये उपाय हो सकते हैं-1. धर्म-मजहब के अंधानुकरण और उसकी कट्टरता को रोका जाना चाहिए। इसके लिए प्रबुद्ध जनों को धर्म के उन ठेकेदारों का कदम-कदम पर कठोर विरोध करना होगा जो अपने अनुयायियों पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाते हैं या फतवे आदि जारी करते हैं। 2. व्यक्ति और विभिन्न समूहों के जीवन में चारित्रिक आयोजनों, नैतिक समारोहों आदि के माध्यम से अधिक आनन्द की सृष्टि करनी चाहिए ताकि लोगों को बन्दूक की संस्कृति (गन कल्चर) से सलूक (बिहेवियर कल्चर) की संस्कृति की ओर मोड़ा जा सके। 3. आम लोगों के मन में यह धारणा बिठाई जाए कि जीवन में परिवर्तन हिंसा से नहीं, अहिंसा से ही लाए जा सकते हैं और वे परिर्वतन शुभतादायक तथा आनन्द प्रदायक हो सकते हैं। मानसिकता को बुद्धि, विवेक तथा समझदारी से भयमुक्त बनाना चाहिए। 4. विश्वास और व्यवहार को सभी प्रकार के बंधनों से मुक्त कर देना चाहिए तथा चरित्र निर्माण का पहला उद्देश्य बनना चाहिए कि घृणा, हिंसा, ईर्ष्या, द्वेष आदि सारे मानवता विरोधी दुर्गुणों से मन मुक्त रहें। धर्म से गुणवत्ता पनपनी चाहिए, कट्टरता नहीं। 5. सबसे
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