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सुचरित्रम्
स्वच्छंदता तथा भ्रष्टता की ओर मुड़ गए। यहां तक कि उसी महात्मा के जीवनकाल में ही वे उसकी अन्तिम आज्ञा को ठुकरा बैठे। नोआखली की आग में जलने के लिए वह महात्मा अकेला ही रह गया। उसके देखते-देखते ही शानदार सत्ता का कुप्रभाव सब ओर फैलने लग गया था। स्वतंत्रता संग्राम में फैली नैतिकता को जब नेताओं ने धो डाली तो वह भारतीय जनता के मन-मानस से भी धुलती गई और सब तरफ स्वच्छंदता व भ्रष्टता का माहौल फैलता गया। ऐसा माहौल किनको रास आता है और कितनों का सत्यानाश कर डालता है-इसे कइयों ने देखा और महसूस किया है तथा जानते तो सभी हैं।
इस विषय में भी यही मानना होगा कि चरित्र जब पतित होता है तो सब कुछ जो अच्छा होता है, पतन के रास्ते मटियामेट हो जाता है। इस देश में यह तथ्य अनुभवगम्य हो गया है और इस कारण से यह आशा की जा सकती है कि यहां चरित्र निर्माण तथा विकास का जो भी सशक्त अभियान छेड़ा जाए वह अवश्य प्रभावशाली सिद्ध होगा। चरित्रहीनता से दुःखी लोगों की संख्या कोई मामूली नहीं है और यदि बहुसंख्या जगा दी जाती है तो चरित्रहीनता कहीं भी नहीं टिकेगी। सत्ता से धन और धन से सत्ता के दुष्चक्र में सारी अच्छाइयाँ भेंट चढ़ी :
कहावत है-'साधु-सन्त अपने पास धन रखे तो तीन कौड़ी का और गृहस्थ के पास धन न हो तो वह तीन कौड़ी का।' मन्तव्य साफ है कि गृहस्थ या सामान्य जन को अपने जीवननिर्वाह के लिए समुचित धन की अनिवार्यता होती है। पेट पूर्ति के लिए धन चाहिए ही, लेकिन जब पेटी (तिजोरी) पूर्ति के लिए वह संचित किया जाता है तब धन की प्राप्ति की कोई सीमा नहीं रहती है। पहली स्थिति में धन आवश्यकता का रूप होता है तो दसरी स्थिति में वह तष्णा की प्रतीक बन जाता है। आज का युग अर्थ-युग कहलाता है और विज्ञान ने सुख-सविधाओं के रूप में नकली आवश्यकताओं का इतना विस्तार कर दिया है कि धन की चाहत शराब के समान हो गई है। शराब जैसे जितनी पीते 'जाओ, तलब ज्यादा से ज्यादा की होती जाती है, उसी तरह आज धन की लालसा अंधे पागलपन में बदलती जा रही है। जो धनी हैं, उन्हें दुनिया भर का धन और चाहिए, जो मध्यम वर्गी है, उन्हें भी भरपूर धन चाहिए ताकि सुख-सुविधा के साधनों को प्राप्त करने में धनी वर्ग से होड़ ले सके। यह मध्यम वर्ग दरअसल अपनी होड़ के लिए गलत तरीकों से धन कमाने के कई अनैतिक तरीकों में लिप्त रहता है। निम्न वर्ग की दशा भी विचित्र है-अभावों से ग्रस्त बना हुआ यह वर्ग अपनी विवशता में अनीति भी करता है तो अपराध भी। इस समय इस आर्थिक चक्र की अग्नि में घी का काम किया है राजनीति ने। स्वतंत्र भारत में गांधी जी ने राजनीति को सेवा के आधार पर फलने-फूलने का रास्ता बनाया था ताकि राजनीति वे लोग न कर सकें जो उसका दुरूपयोग करके अपने मतलब पूरे करने की इच्छा रखते हों। जन सेवा का उद्देश्य रहेगा तो सेवाभावी व्यक्ति ही राजनीति के क्षेत्र में प्रवेश कर सकेंगे-ऐसा गांधी जी का विचार था। लेकिन सत्ता मिलते ही उनके ही अनुयायी उनके सेवा के उद्देश्य से मुकर गए। उन्होंने राजनीति को सत्ता लाभ का साधन बना दिया-परिणामस्वरूप एक ऐसे दुष्चक्र का जन्म हुआ, जिसने समूची व्यवस्था की धुरी ही बदल दी।
यह दुष्चक्र है सत्ता से धन कमाने और धन से सत्ता पाने का दुष्चक्र। इसका सभी क्षेत्रों में ऐसा
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