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सुचरित्रम्
बानगियाँ हैं-भांति-भांति के सौंदर्य प्रसाधनों का प्रयोग-उपयोग, पहनने-ओढ़ने की विचित्र डिजाइनें, फिल्मों के द्विअर्थी संवाद, कामुक नृत्य आदि। जुए के भी नए-नए रूप आ रहे हैं, जिनके जरिए सारे कानूनों के बावजूद करोड़ों के वारे-न्यारे होते रहते हैं। शराब का प्रचलन बेहद बढ़ रहा है जो स्त्री जाति तथा किशोरवय के लड़के, लड़कियों में भी फैल रहा है। अंडों को शाकाहार बता कर शाकाहारी भी धड़ल्ले से उन का उपभोग कर रहे हैं। चोरी के नए तरीके रिश्वत, कमीशन, गिफ्ट आदि के रूप में ऐसे निकले हैं कि लेने-देने वाले शर्मसार भी नहीं होते। ये समाज के महारोग बन गए हैं। फैशनपरस्ती और व्यसनों का साथ चोली दामन का हो गया है। युवा वर्ग में देखें तो सादा जीवन, उच्च विचार का आदर्श तो जैसे सर्वथा लुप्त ही हो गया है। जीवन व्यसन जैसा हो गया है।
अध:पतन चारित्रिक अधःपतन की ओर ले जाती है दुर्व्यसनों की राहें : __जीवन विकास तथा चरित्र निर्माण की दो दिशाएं हैं-ऊँची या नीची अर्थात् उन्नयन की दिशा अथवा अधःपतन की दिशा, जबकि जीवन और चरित्र का एक ही लक्ष्य होता है कि उन्नति करते जाना, ऊपर से ऊपर चढ़ते जाना। यही उन्नयन एक दिन चरम बिन्दु पर पहुँच कर मुक्तावस्था में स्थिर और स्थित हो जाता है। उन्नयन सुख प्राप्ति की दिशा है तो अध:पतन दुखदायिनी दिशा। जितने भी दुर्व्यसन हैं, वे सब व्यक्ति की चारित्रिक दुर्बलता से पनपते हैं और वे जब जीवन के साथ जटिलता से बंध जाते हैं तो अध:पतन की ओर ही व्यक्ति को ले जाते हैं। दुर्व्यसनों के रूप-अपरूप को समझ कर आकलन यह किया जाना चाहिए कि कौन-कौनसे दुर्व्यसन व्यक्ति को किस प्रकार अध:पतन के दलदल में फंसाते हैं और उस दलदल से निकलने के लिए जब व्यक्ति की चेतना पुनर्जागृत हो जाए तो कितने व कैसे पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।
यह एक प्राकृतिक सत्य है कि व्यक्ति अपना भान भूलकर नीचे गिरता भी है, बेहोश भी हो जाता है, लेकिन वैसी स्थिति सदाकाल नहीं रहती है। उसकी सोई चेतना फिर से जागती है, अपनी दुर्दशा को देखती-समझती है और फिर से ऊपर उठने का-उन्नति करने का सत्पुरुषार्थ प्रारंभ करती है, क्योंकि मनुष्य प्राणी जगत् का एक भावप्रधान तथा अति सचेतन सदस्य है और वह चिंतन, मनन, विवेक, बुद्धि आदि सद्गुणों का धनी है। सचेतन होते ही अन्य प्राणियों के साथ अपने व्यसनगत व्यवहार पर वह पछताता है और उसे फिर से सदय एवं सम बनाने के लिए उसकी सारी शक्तियाँ तथा विशेषताएँ सक्रिय हो जाती है। अभी हम उसकी उन्हीं शक्तियों एवं विशेषताओं के व्यसनगत दुष्प्रभाव पर विचार कर रहे हैं कि कैसे वे निष्क्रिय एवं सुशुप्त बन जाती हैं। मोटे तौर पर कोई भी दुर्व्यसन ऐसा मद होता है, जो व्यक्ति की चेतना को धीरे-धीरे निष्प्रभावी बना देता है तथा व्यक्ति की सारी वृत्तियाँ तथा प्रवृत्तियाँ दुर्व्यसनों के डंडे से ही हांकी जाने लगती हैं। व्यक्ति बेबस हो जाता है।
इस संदर्भ में मद या मदिरा के इन दोषों को समझ लेना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने इन सोलह दोषों का विवेचन किया है-1. शरीर का विद्रूप होना, 2. शरीर का विविध रोगों का आश्रय स्थल बन
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